सुरों के माधुर्य में अमरत्व का भाव कहीं मिलता है तो वह भारतीय संगीत में ही है। उपनिषद् कहते हैं, ‘जन्म ग्रहण किया है इसलिए सभी अमर नहीं होते, जिन्होंने असीम की उपलब्धि की है वे ‘अमृतास्ते भवन्ति’।...तो यह संगीत ही है जिसमें व्यक्ति असीम को भी पा लेता है। असीम माने उसके आनंद की कोई सीमा नहीं है। अमृतरस की वर्षा है वहां। मधुर गान के श्रवण की अनुभूति को क्या व्याख्यायित किया जा सकता है! शायद नहीं। शब्द वहां पहुच ही नहीं सकते।
बहरहाल, पंडित जसराज को सुनते मन में अध्यात्म के अद्भुत भाव जगते हैं। उन्हें पहले भी सुना है परन्तु अस्सी की उम्र में इकत्तीसवें राजमल सुराणा संगीत समारोह में पिछले दिनों उन्हें सुना तो लगा, अध्यात्म की अद्भुत चेतना में उनके सुर जैसे अभी भी पुनर्नवा हैं। हमारे यहां ऋषियों ने सदा ही रागों को मंत्रांे की तरह देखा है। मुझे लगता है, पंडित जसराज हमारे समय के संगीत ऋषि हैं।...राग नट नारायण से वह मंगलाचरण करते हैं, ‘मंगलम भगवान विष्णु...मंगलम गरूड़ध्वज...।’ सुरों में पवित्रता की अवर्णनीय खनक। पंडितजी का गान खुद की उनकी प्रभु भक्ति का सहज संगीतात्मक रूपान्तरण ही तो है। स्वर, ताल और राग को निभाते वह रागों के अथाह समुद्र में ले जाते हैं। सुनने वालों को उसमें डूबकी लगवाते, पवित्र करते।
साज और सुरों का अनूठा मेल लिए वह गा रहे हैं, ‘जब से छवि देखी...’। स्वरों को ऊपर ले जाते औचक वह नीचे ले आते हैं... सप्तकों का भेद जैसे समाप्त हो रहा है। आरोह में अवरोह और अवरोह में आरोह। प्रस्तुत बंदिशों में मींड और स्वर, श्रवण सौन्दर्य क जैसे अद्भुत उजास रच रहे है। गान में अर्थवत् ध्वनियों का जो लोक वह रचते हैं, उसमें अध्यात्म की अनंत गहराईयां हैं। गायन की उनकी द्रुत गति तबले को भी बहुतेरी बार मात देती है। स्वरों की स्वाधीनता में कहीं कोई दखल नहीं करते हुए भी वह उन पर गजब का नियंत्रण रखते हैं। हृदयतंत्री के तार-तार को झंकृत करते विचलित होते हमारे भावों को अद्भुत शांति देता है उनका गान।
अचरज होता है, अस्सी की उम्र में भी श्वांस पर इस कदर नियंत्रण! लय में, सात सुरों में ‘निरंकार नारायण’ से प्रभु की प्रार्थना। म प ध नी...ध ग प ध नी। बीच-बीच में स्वरों का कंपन। गान मंे बहुतेरी बार वह स्वरों को हिलाते हैं। उनकी यह गमक चित्त को आनंदित करती है। झूले में झूल रहे हैं स्वर। आंदोलित गमक का अनूठा लोक रचा जा रहा है। संगीत का यह माधुर्य और कहां है! राग के वादी, संवादी, अनुवादी स्वरों में...सच! वह बढ़त करते हैं। सज रहे हैं स्वर। बोल बदल जाते हैं, ‘राधे-राधे बोलो बिहारी चले आएंगे...’। सहज-सरस गान। कहीं कोई उलझाव नहीं। आलाप में वह खुद को भी जैसे भुल रहे हैं। यह गान में आत्म की उनकी खोज है। भावों में माधुर्य का अनुष्ठान। ‘राधे गुन गावूं, मैं श्याम को रीझावूं...’, सुरदास के पद ‘मैया मोहे दाऊ बहुत खिजायौ...’ गाते वह खुद रचित भजन भी सुनाते हैं, ‘मेरे प्यारे लला, हनुमान लला...’। हृदय के सूक्ष्म भावों की भाषा ही जैसे इसमें उन्होंने रची है।
मुझे लगता है, संगीत मार्तण्ड गान में स्वरों का सर्वथा नया बनाव करते हैं। राग वही है जिसे दूसरे भी गाते हैं परन्तु पंडित जी की अपनी उपज है। वहां शब्दों को जैसे भक्तिरस से गुना गया हैं। सर्वथा अलग है राग का उनका निभाव। पवित्रता का आह्वान करता। हमारे यहां कहा भी गया है, ‘नादाधीनं जगत’ अर्थात् संपूर्ण जगत नाद के अधीन है। पं. जसराज के नाद के सभी सुनने वाले हम अधीन हैं। जीवन में पूर्णता का आर्विभाव करते उन्हें सुनना क्या अनिवर्चनीय की उपलब्धि ही नहीं है!
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