Friday, January 14, 2011

काव्य संवेदनाओं का कैनवस पर रूपान्तरण


विष्णुधर्मोत्तर पुराण का तीसरा खंड चित्रसूत्र है। इसमें विभिन्न कलाओं के अंर्तसंबंधों पर गहरे से प्रकाश  डाला गया है। एक स्थान पर रोचक प्रसंग आता है। राजा वज्र नृत्य सीखना चाहते हैं। ऋशि मार्कण्डेय कहते हैं, पहले चित्रकला को सीखना होगा। वह चित्रकला सीखना चाहते हैं तो कहा जाता है, इसके लिए संगीत सीखना होगा। वह संगीत सीखना चाहते हैं तो कहा जाता है पहले काव्य कला को जाना होगा। इस तरह कलाओं के अंतरसंबंधों की चर्चा करते संवाद व्याकरण तक पहुंच जाता है। संवाद का मूल है,कलाओं की परस्पर निर्भरता। चित्रसूत्र स्पष्ट  करता है कि सभी कलाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। एक कला को जाने बिना दूसरी कला को नहीं समझा जा सकता। सभी कलाएं परस्पर अन्तर्गुम्फित है। एक दूसरे से अंदर तक जुड़ी हुई। कभी टाईम्स ऑफ इण्डिया ने नव वर्ष  पर अपने पाठकों के लिए आवरण पेज  पर एम.एफ.हुसैन का एक बेहद सुन्दर चित्र प्रकाशित  किया था। ख्यातनाम चित्रकार अखिलेष बताते हैं,  हुसैन ने यह चित्र शमसेर  बहादुरसिंह की कविता ‘पतझर’ की पंक्तियां ‘एक पीली शाम /पतझर का जरा/अटका हुआ पत्ता...’ पर बनाया था। कविता पर चित्र बनाने के साथ ही चित्रों को देखते, संगीत का आस्वाद करते भी हमारे यहां कम काव्यकर्म नहीं हुआ है। अशोक  वाजपेयी ने रजा, हुसैन, स्वामीनाथन के चित्रों और कुमारगंधर्व के गान पर उम्दा कविताएं लिखी हैं तो कभी चित्रकार जय झरोटिया ने सौमित्र मोहन की कविता ‘लुकमान अली’ के पाठ को सुनते पूरी की पूरी एक चित्र श्रृंखला ही उस पर बना दी थी। महादेवी, शमसेर के  काव्य के साथ चित्रकर्म भी करते रहे हैं।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों सप्तक का आस्वाद किया। चित्र और कविताओं के सप्तक का। सात कवियों की कविताएं थी और उन पर सात चित्रकारों के चित्र। कवि-चित्रकार सप्तक का आस्वाद करते लगा एक कलाकार को दूसरे माध्यम के कलाकार की रचना संवेदना के स्तर पर छू जाए तो वह रूपान्तरण की प्रक्रिया में लग जाता है। कला प्रदर्शनी ‘हमकदम’ जैसे इसे ही व्यक्त कर रही थी। दुष्यंत की काव्य पंक्तियां ‘अकेला चांद और तुम’ में मन के भावों का कलात्मक सौन्दर्य हैं, अडीग ने इसे कैनवस पर गहरे से जैसे जिया है। रिच टैक्स्चर में अडीग ने सर्वथा अलग स्पेस रचते पाशर्व के काले में पीले और लाल रंग की महीन बुनावट करते संवेदना का अलग उजास रचा है। अभिशेक गोस्वामी की ‘हम कुछ बोलेंगे’ कविता को विश्वास  ने कैनवस पर सलेटी, धूसर रंगों की अनुभूतियों से संवारा तो प्रभात की ‘पन्द्रह साल’ पर निधि सक्सेना ने छिटके हुए बैंगनी रंगों का जैसे स्मृति कोलाज रचा है। देवयानी की ‘बदनाम लड़कियों’ को राजेद्रसिंह के मूर्त-अमूर्तन के त्रिआयामी रूपाकार में और प्रेमचन्द्र गांधी की ‘मलयाली स्त्रियॉं’ पर महेन्द्रप्रताप शर्मा  की रूपसर्जना में अनुभूत किया जा सकता है। बलराम कावंत की ‘तेरी तलाश  में’ पर ज्योति व्यास ने छायाकला के अंतर्गत सर्जनात्मकता की अर्थव्यंजना की है तो हरेन्द्र कौर की कविता ‘ये कैसी लड़की’ को अविनाश ने रेखाओं की सरल चित्र संरचना में निहित किया है।

सप्तक आस्वाद करते मुझे लगता है यह शब्द की संवेदना ही है जो किसी भी कलाकार की रागात्मक वृत्ति को, उसके सौर्न्दबोध को परिस्कृत करती है। जिन सात कवियों की संवेदनाओं का कैनवस पर रूपान्तरण हुआ, उन सब ने अपने अनुभवों, स्मृतियों को एक खास तरह की व्यंजना दी और अपने तई समकालीन सरोकारों से भी अपने को जोड़ा है। काव्य की उनकी संवेदनाओं का कैनवस पर यह रूपंकरण कला के अन्तर्गुम्फन समय का ही तो एक प्रकार से रचाव है! महादेवी वर्मा की "दीपशिखा"  में लिखी भूमिका याद आ रही है, ‘कलाओं में चित्र ही काव्य का अधिक विश्वत सहयोगी होने की क्षमता रखता है।’

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