Thursday, December 30, 2010

आईए, हम भी रचें नए वर्ष का उजास...

कल अज्ञेय को पढ़ रहा था। शब्दों में वह कला का अद्भुत लोक रचते हैं। आप-हम सबकी सुप्त अनुभूतियों और संवेदनाओं को स्वर देते हुए। भीतर की नींद से जगाते। थोड़े में बहुत कुछ कहते। काव्य कला के चर्म को उनके लिखे में अनुभूत किया जा सकता है, ‘उड़ गयी चिड़िया@कॉपी, फिर@थिर@हो गयी पत्ती।’ मुझे लगता है, यह अज्ञेय ही हैं जो शब्दों के भीतर के मौन को भी स्वर देते हैं। समय और उसकी चेतना से साक्षात् कराते वह जड़ की बात करते हैं। जड़ की बात कौनसी? जो आज है वह कल नहीं होगा। तब क्या यह जो आज है वह क्या हमारी परम्परा नहीं बन जाएगा! मन इस परम्परा में ही है। अज्ञेय की काव्य कला की परम्परा में, चित्रकारों की चित्रकृतियों की परम्परा में, नृत्य की, नाट्य की, संगीत की हमारी परम्परा में। हम जितना उन परम्पराओं में जाते हैं, उतना ही नवीन होते हैं। अंदर का हमारा जो रीता है, वह भरता है। यह परम्परा ही है जो अतीत को वर्तमान और वर्तमान को भविष्य से जोड़ती है। सामाजिक जीवन को इसी से तो निरंतरता मिलती है।

यह वर्ष आज बीत रहा है। कल नया सूर्य उगेगा। कैलेण्डर बदल जाएगा। नया साल प्रारंभ हो जाएगा, कैलेण्डर बदलने की परम्परा को जीवित रखते हुए! एमिली डिकिन्सन की बेहद खूबसूरत सी एक कविता याद आ रही है, ‘दिस इज माई लेटर टू दी वल्र्ड..’। वह कहती हैं मैं कविता नहीं कर रही। यह तो बहुत जरूरी, निहायत जरूरी चिट्ठी है मेरी-दुनिया के नाम...जिसे लिखे बिना मैं रह नहीं सकती-भले दुनिया उसे समझे न समझे, भले दुनिया को उसे पढ़ने की फुरसत हो, न हो।’ एमिली कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कह रही है। कह क्या रही है, हममें जैसे प्रवेश कर रही है। यही तो संप्रेषण की उसकी कला है। सच्ची कला कल्पना और अनुभूति का ही तो संयोजन है। एक तरह से कल्पना प्रवण भावुकता के दौर में आए एक संवेदनशील मस्तिष्क की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति। कवि, चित्रकार, अभिनेता, नर्तक जब कलाकर्म कर रहा होता है तो बहुत से स्तरों पर हमसे संवाद ही तो कर रहा होता है। आत्मीयता का अहसास कराते। हमें लगता है, वह जो संवाद कर रहा है, वही तो हमारा अपना सच है। हम भाव-विभोर हो उठते हैं। गलगलापन हो जाता है। लगता है, बस केवल और केवल हमारे लिए ही है शब्द, कलाकृति। यही तो है कला की हमारी परम्परा। जीवन की एक प्रकार से पुनर्रचना। हम अपने होने को सदा कलाओं में ही ढूंढते हैं। बार-बार यह याद करते,-ईश्वर की रची कला ही तो है यह सम्पूर्ण सृष्टि।

इस मूल्यमूढ़ समय में अनुभव संवेदन की हमारी क्षमता के अंतर्गत यह कलाएं ही हैं जो हमें बचाए हुए है। नए माध्यमों में हमारी अपनी पहचान और भीतर की खोज का उन्मेष जगाती समयातीत हैं हमारी तमाम कलाएं। उनकी परम्पराएं। यह कलाएं ही हैं जिनके सरोकार उत्तरोतर विराट् और व्यापक होने की सामथ्र्य रखते हैं। परम्परा के पोषण और परस्परता में वे निरंतर उगती रहती है सांमजस्य भाव पैदा करते। विग्रह के लिए वहां कोई अवकाश नहीं है। आत्म को व्यक्त करने का माध्यम हैं कलाएं।

आईए, बीते वक्त की तमाम कड़वाहटों को भुलाते, अच्छाईयों को याद करते साहित्य, संगीत, नृत्य और चित्र कृतियों की कलाओं मे रमें। उन्हें अपने भीतर की सर्जना से रचें। हर दिन नया आसमान छूएं। अपना नया आकाश बनाएं।...बचेगा वही जो रचेगा। यह आकाश ही तो है जिसमें कुछ नहीं रहता और सब भरा रहता है।...यह जब लिख रहा हूं, सर्जन के गहरे सरोकार लिए, देश के ख्यातनाम कलाकार अवधेश मिश्र की कलाकृति का आस्वाद भी ले रहा हूं। आप भी लें यह आस्वाद! आइये कलाओं में बसें।...हम भी रचें नए वर्ष का उजास।
डेली न्यूज़ में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" 31-12-2010

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