आकल्पन, रूपविधान और रचना से कोई भी चित्र मौलिक और आनन्ददायक बन सकता है परन्तु वैश्विकरण के इस दौर में अभिव्यक्ति एवं कला के नवीन तरीके खोजने के प्रयास में सौन्दर्यबोध के माने भी जैसे बदल रहे हैं। संस्थापन में भदेस और अनर्गल भी कला है। स्वतंत्रता का अर्थ है जो मन आए करो। गवेषणा का विषय जो बन गई है कला। नई संभावनाओं और मूल्यों के प्रति इधर कलाकारों के आग्रह को इसी से समझा जा सकता है कि विचार, नैतिक सिद्धान्त और तथ्यात्मक सामग्री की बजाय अतिशय उत्तेजकता, चौंकाने वाले और किसी छोर से समझ न आने वाले दृश्य की उत्पति ही कला का हेतु हो रही है। क्या है कला की इस आधुनिकता का भविष्य? कला आलोचक मित्र विनयकुमार कला दीठ को लेकर इस पर टिप्पणी करते हैं, ‘दर्शकों को नासमझ समझने की भूल नए मीडिया के कलाकार कर रहे हैं।’
बहरहाल, पिछले दिनों ‘इण्डिया आर्ट समिट’ में भाग लेते लगा, कला का आधुनिक युग पंाच सितारा संस्कृति का है। ग्लेमर से लबरेज। प्रगति मैदान में कला के आज से आंखे चौंधिया रही थी। विश्वभर की कला विथिकाएं एक छत के नीचे थी और संस्थापन कला की तगड़ी नुमाईश में कला की प्रचलित मान्यताएं तय कर पाना मुस्किल हो रहा था। पुणे से आए कलाकार मित्र स्वरूप और स्मिता विश्वास, लखनऊ से आए अवधेश और दिल्ली के हेमराज, वेदप्रकाश भारद्वाज के साथ ‘इण्डिया आर्ट समिट’ में विचरते लगा किसी और दुनिया में आ गया हूं। कला की यह हमारी दुनिया तो किसी अर्थ में नहीं कही जा सकती थी। कैनवस किनारे पर था। विडियो इन्स्टालेशन, ध्वनि प्रभाव और एक जगह तो बाकायदा जिन्दा मुर्गों की नीम बेहोशी को भी कला के दायरे में लाते प्रदर्शित किया गया था। प्रयोगों में कहीं आम इस्तेमाल में होने वाले 10-20 के नोटों में महात्मा गॉंधी की आकृति को हटाकर कुछ और आकृतियां बनाकऱ उसे फ्रेम कराया हुआ था तो कहीं ग्राफिक्स में बहुत सारे लाउड स्पिकर थे, विडियो में न थमने वाली भद्दे ढंग की हंसी थी। अजीबोगरीब शक्ल बनाए इंसानों का कोलाज था और संस्थापन में कूड़े-कचरे को भी यथास्थिति में प्रदर्शित किया गया था। बहुत सारी विथिकाओं से बाहर निकल जूठे ग्लास फेंकने की डस्टबीन की तलाश करते अवधेश ने एक जगह कचरे के ढेर को देख हमें भी जूठन फेंकने के लिए वहां बुला लिया। स्मिता ने गौर किया, कचरा फेंक स्थल नहीं, वह भी संस्थापन था। मुझे लगा, कलाकार बनने का यह अच्छा अवसर है। कैनवस पर तो हाथ आजमा नहीं सकता, क्यो नहीं इन्स्टालेशन आर्टिस्ट ही बन जाउं। पूरी कॉफी पीने के मोह को त्यागते आधे ग्लास को मैंने भी कचरे के उस ढ़ेर में सजा दिया। हो गया इन्स्टालेशन!
बरहाल, कला की इस चकाचौंध में पिकासो, वॉन गॉग, अवनीन्द्रनाथ, सुबोध गुप्ता, रज़ा, हुसैन के चित्रों से साक्षात् करते सुकुन भी हुआ। कला के हर रंग, हर ढंग में अतुल डोडिया भी अलग से ध्यान खींच रहे थे। रेखांकनों के साथ अतुल ने डिजिटल फोटोग्राफी के प्रयोग में कला के इस वर्तमान दौर को जैसे कैनवस पर जिया। कैप्सन और फिल्म पोस्टर चित्रों के अंतर्गत बाजार, कलाकार, कला में व्यवसाय को ढूंढते लोगों पर उनकी कला टिप्पणी मौजूं थी।
सच ही तो है! चाक्षुष कलाओं का प्रतिनिधित्व अब परफार्मेंन्स, मिक्स मीडिया, फोटोग्राफी, इन्स्टालेशन जैसे माध्यम ही कर रहे है। यानी तकनीक कला में निरंतर हावी होती जा रही है। ‘इण्डिया आर्ट समिट’ के दर्शकीय अनुभव से बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा। अर्न्तमन संवेदनाओं और विचारों के बगैर बहुत से स्तरों पर केवल और केवल तकनीक का कौशल क्या कला का भविष्य है? हे पाठको! इसका निर्णय तो अब आप पर ही छोड़ता हूं।
(कला तट - २८-१-२०११)
नमस्कार राजेश जी,
ReplyDeleteआपके लेख ने मुझे पुन: Art Summit भ्रमण करा दिया.
धन्यवाद्
gourishankar soni