५ फ़रवरी २०१०
शब्दों का सांगीतिक आस्वाद
हमारे यहां संगीत को इतना शास्त्रगत और अनुष्ठानगत कर दिया गया है कि आम जन की उससे सहज ही दूरी होती चली गयी है। ऐसे मंे यदि किसी पुस्तक में संगीत साधक और सुनने वाले दोनों के भावों की मिठास हो तो वह क्या हमारे अनुभाव-प्रकाष की भाषा नही होगी! यतीन्द्र मिश्र की ‘सुर की बारादरी’ यही आभाष कराती है। पिछले दिनों वह जब जयपुर आए तो यह पुस्तक भेंट कर गए। पढ़ी तो लगा सांगीतिक अनुभवों को सर्वथा नये अंदाज में इसमें जिया गया है। अर्सा पहले बिस्मिल्ला खां से भेंट हुई थी। जितनी मिठास उनकी शहनाई मंे है, उतनी ही मिठास उनके व्यक्तित्व में भी थी, यह पहली बार तभी अनुभूत किया था...और यतीन्द्र ने तो अपनी पुस्तक में शब्द और सुरों की भाषा के जरिए भाव की भाषा का मुहावरा ही जैसे पाठकों को दे दिया है। यह ऐसा है जिसमें शहनाई के सुर ही नहीं झरते बल्कि खुद खां साहब का भोलापन और खुद को कुछ नहीं समझने का वह भाव भी है जो उनकी महानता को दर्षाता है। खां साहब कहते हैं, ‘अभी भी मेरा काम कच्चा है। षडज (स) ही ठीक से कायम नहीं हो सका, तो बाकी के छह सुूरों के लिए अभी छह जन्म और चाहिए।’ यतीन्द्र इस पर टिप्पणी करते हैं, ‘यह बिस्मिल्ला खां की कला प्रज्ञा के प्रति कहन आभार व जन्म की निरर्थकता का वही बोध है, जो निजामुद्दीन औलिया के पास है, जहां सोना-चांदी, घोड़े-हाथी सभी अपनी उपस्थिति में ऐष्वर्यहीन है।’ यतीन्द्र एक जगह अपने लिखने की शुरूआत करते हैं, ‘...अस्सी बरस से वे सुर मांग रहे हैं।’ भाषा का यह सांगीतिक छन्द नहीं है! इस छन्द में खां साहब की सुर साधना के बहुतेरे अनछुए पहलू भी पहली बार पाठकांे के सामने आए हैं। मसलन खां साहब का बचपन का नाम कमरूद्दीन नहीं बल्कि अमरूद्दीन था। उनका जन्म उस डूमगांव मंे हुआ वही जहां की सोन नदी के किनारों पर पाई जाने वाली घास से शहनाई बजाने की रीड बनाई जाती है। यह भी कि उन्हें भारत रत्न सम्मान मिला परन्तु उनकी फटी तहमद नहीं बदली। उनकी षिष्या ने टोका, ‘बाबा!...अब तो आपको भारत रत्न भी मिल चुका है, यह फटा तहमद ना पहना करें।...’ खां साहब लाड़ से भरकर बोले-‘धत्! पगली ई भारत रत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं।...मालिक से यही दुआ है-फटा सुर न बख्शे।’ ऐसे ही बहुतेरे प्रसंगों में यतीन्द्र बिस्मिल्ला खां से करीबी नाता कराते हैं। सांगीतिक आस्वाद में आस्वाद में ‘सुर की बारादरी’ मंे बिस्मिल्ला खां से किया संवाद है, बिसरा दी गई लोकधुनें और बेहद पुरानी ठुमरियों के बोल हैं तो काषी की संगीत परम्परा का गान भी हैं। यतीन्द्र लिखते हैं, ‘कजरी के बोलों के साथ अगर आपको घुलना हो और शहनाई की अलबेली लय पर बहुत दूर तक बहते चले जाना हो तो खां साहब के दरवाजे आपके लिए खुले हुए हैं।’ मैं इसमें यह जोड़ देता हूं, शब्दांे में सांगीतिक आस्वाद करना हो और उसमें डूब-डूब जाने का मन हो तो ‘सुर की बारादरी’ मंे आपका स्वागत है।
kamal ka likha hai...
ReplyDeletenarayan narayan
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