संगीत, नाट्य के आदि प्रवर्तक आचार्य
भारतीय कला-सृष्टि, सृष्टि का पुनःस्थापन है। सृष्टि का अनुकरण है। नव सृष्टि है। जब भी कला के ये भाव मन मंे आते हैं, भगवान षिव की नटराज मूर्ति आंखों के सामने घुमने लगती है। षिव ही तो हैं जो नृत्य, संगीत, नाट्य के आदि प्रवत्र्तक आचार्य हैं। संगीत को अधिक सूक्ष्मता प्रदान करने के लिए भगवान षिव ने ही सुर सप्तक की रचना की। इसी से वे नादतनु कहलाए। षिव सूत्र में कहा गया है ‘नर्तक आत्मा’ अर्थात् आत्मा नर्तक है। षिव का नृत्य आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों ही स्तरों पर हो रहा है। नृत्य का जहां जन्म होता है, वहीं गति होती है। षिव नर्तक हैं, नटराज हैं। नृत्य सम्राट है। यह संपूर्ण विष्व षिव का लगातार नाच ही है। सृजन के नृत्य और जीवन चक्र की नियमितता की मनोहर अभिव्यक्ति षिव की नटराज मूर्ति में ही दिखायी पड़ती है। नटराज में सृष्टि के लयात्मक विकास तत्व का दर्षन है। अपने नृत्य रस में मस्त चिदंबर षिव के आनंदमय नृत्य से ही सृष्टि का जन्म और विकास साथ साथ होता रहता है। नटराज की मूर्ति को इस बार जब देखें तो जरा गौर करें, उनके ऊपर वाले दाहिने हाथ में डमरू है। काल के डमरू के ताल पर ही कला थिरकती है। डमरू सृष्टि के उद्भव का प्रतीक है। कहते हैं, सृष्टि का उद्भव विष्फोट से, शब्द से हुआ। नटराज ने एक बार नाच के अंत में चैदह बार डमरू बजाया। इसी से चैदह षिवसूत्रों का जन्म हुआ। यही वस्तुतः उनके शब्द रूप का पूर्ण विस्तार है। इन चैदह सूत्रों के आधार पर ही पाणिनी ने व्याकरण की रचना की। आकाषवाणी में अस्थायी उद्घोषक की सेवाओं के दौरान स्टूडियो में जब भी प्रवेष करता, षिव की नटराज मूर्ति से ही सामना होता। षिव के इस नृत्य स्वरूप ने मन को झंकृत करते सदा ही विचारों की जाग का नया भव दिया। ऐसा जिसमें डूब-डूब आज भी आनंद से सराबोर हो जाता हूं। मुझे लगता है सृष्टि के लयात्मक विकास का समग्र दर्षन षिव के नटराज स्वरूप में ही है। षिव का यह नृत्य स्वरूप अमृतमय और मंलकारक है। षिव जब नृत्य करते हैं तो सभी देवता उसमें सम्मिलित होते हैं। सरस्वती वीणावादन करती है, इन्द्र बांसूरी बजाते हैं, भगवती रमा गायन करती है, विष्णु ताल वाद्य मृदंग बजाते हें, देवता उन्हें घेरकर खड़े हैं। यही तो है षिव का महादेवत्व स्वरूप। सृष्टि विद्या समाहित षिव स्वरूप। कुमार स्वामी ने षिव ताण्डव को सृष्टि के रहस्य के उन्मीलन के रूप में देखा है। और मैं, नटराज की मूर्ति जब भी देखता हूं सृष्टि विद्या का रहस्य उसी में पाने लगता हूं। महाषिवरात्रि....नृत्य गीत की रात्रि ही तो है। षिव को याद करते झूमें और गाएं।
भारतीय कला-सृष्टि, सृष्टि का पुनःस्थापन है। सृष्टि का अनुकरण है। नव सृष्टि है। जब भी कला के ये भाव मन मंे आते हैं, भगवान षिव की नटराज मूर्ति आंखों के सामने घुमने लगती है। षिव ही तो हैं जो नृत्य, संगीत, नाट्य के आदि प्रवत्र्तक आचार्य हैं। संगीत को अधिक सूक्ष्मता प्रदान करने के लिए भगवान षिव ने ही सुर सप्तक की रचना की। इसी से वे नादतनु कहलाए। षिव सूत्र में कहा गया है ‘नर्तक आत्मा’ अर्थात् आत्मा नर्तक है। षिव का नृत्य आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों ही स्तरों पर हो रहा है। नृत्य का जहां जन्म होता है, वहीं गति होती है। षिव नर्तक हैं, नटराज हैं। नृत्य सम्राट है। यह संपूर्ण विष्व षिव का लगातार नाच ही है। सृजन के नृत्य और जीवन चक्र की नियमितता की मनोहर अभिव्यक्ति षिव की नटराज मूर्ति में ही दिखायी पड़ती है। नटराज में सृष्टि के लयात्मक विकास तत्व का दर्षन है। अपने नृत्य रस में मस्त चिदंबर षिव के आनंदमय नृत्य से ही सृष्टि का जन्म और विकास साथ साथ होता रहता है। नटराज की मूर्ति को इस बार जब देखें तो जरा गौर करें, उनके ऊपर वाले दाहिने हाथ में डमरू है। काल के डमरू के ताल पर ही कला थिरकती है। डमरू सृष्टि के उद्भव का प्रतीक है। कहते हैं, सृष्टि का उद्भव विष्फोट से, शब्द से हुआ। नटराज ने एक बार नाच के अंत में चैदह बार डमरू बजाया। इसी से चैदह षिवसूत्रों का जन्म हुआ। यही वस्तुतः उनके शब्द रूप का पूर्ण विस्तार है। इन चैदह सूत्रों के आधार पर ही पाणिनी ने व्याकरण की रचना की। आकाषवाणी में अस्थायी उद्घोषक की सेवाओं के दौरान स्टूडियो में जब भी प्रवेष करता, षिव की नटराज मूर्ति से ही सामना होता। षिव के इस नृत्य स्वरूप ने मन को झंकृत करते सदा ही विचारों की जाग का नया भव दिया। ऐसा जिसमें डूब-डूब आज भी आनंद से सराबोर हो जाता हूं। मुझे लगता है सृष्टि के लयात्मक विकास का समग्र दर्षन षिव के नटराज स्वरूप में ही है। षिव का यह नृत्य स्वरूप अमृतमय और मंलकारक है। षिव जब नृत्य करते हैं तो सभी देवता उसमें सम्मिलित होते हैं। सरस्वती वीणावादन करती है, इन्द्र बांसूरी बजाते हैं, भगवती रमा गायन करती है, विष्णु ताल वाद्य मृदंग बजाते हें, देवता उन्हें घेरकर खड़े हैं। यही तो है षिव का महादेवत्व स्वरूप। सृष्टि विद्या समाहित षिव स्वरूप। कुमार स्वामी ने षिव ताण्डव को सृष्टि के रहस्य के उन्मीलन के रूप में देखा है। और मैं, नटराज की मूर्ति जब भी देखता हूं सृष्टि विद्या का रहस्य उसी में पाने लगता हूं। महाषिवरात्रि....नृत्य गीत की रात्रि ही तो है। षिव को याद करते झूमें और गाएं।
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