Saturday, February 4, 2012

जदि तोर डाक सुने केउ ना आरने तबे एकला चलो रे...


रवीन्द्र संगीत माने भाषा, भाव और रस। शास्त्रीय और लोक संगीत का मेल। आत्मा का गान। ध्रुपद, खयाल, ठुमरी वहां है तो बंगाल के लोक संगीत की अजस्त्र धारा बाउल, भटियाली का माधुर्य भी वहां है। कहें हिन्दुस्तानी संगीत की राग-रागिनियों में लोक के समवेत स्वर कही हैं तो वह रवीन्द्र संगीत में ही हैं।
रवीन्द्र नाथ टैगौर अपने युग के अद्भुत संगीत मर्मज्ञ रहे हैं। ‘गीत वितान’ में रवीन्द्र ने अपने गीतों को ‘गान’, ‘बंधु’, ‘प्रार्थना’, ‘विरह’, ‘साधना और संकल्प’, ‘अन्तर्मुख’, ‘निःसंशय’, ‘उत्सव’, ‘बाउल’ आदि उपशीर्षकों से संयोजित करते बाकायदा उनकी स्वरलिपि भी दी है। बांगला भाषा में उनके ये गीत ‘भांगा-गान’ से भी लोकप्रिय हुए। यह रवीन्द्र ही हैं जिन्होंने गान में स्वरानंद के साथ ही गीतों मंे निहित भावों के संप्रेषण की भी राह सुझाई। रवीन्द्र संगीत की यही तो बड़ी विशेषता है कि वह शास्त्रगत नहीं होकर लोक से जुड़ा है। उसे सुनते अनुभूति का आलोक मिलता है। शुद्ध एवं मिश्रित रागों में लोकसंगीत की छोंक से बना रवीन्द्र संगीत हृदय के अंतरतम उद्गारों का गान है।
बहरहाल, आरंभ से ही संगीत संगीत हमारे यहां इतना अधिक शास्त्रगत और अनुष्ठानगत रहा है कि उसके सहज माधुर्य से आम जन की एक प्रकार से दूरी होती चली गयी। ऐसे में रवीन्द्रनाथ टैगौर ने शास्त्रीय राग-रागिनियों की समृद्ध परम्परा की जीवंतता के साथ उसमें लोक का रस घोला। संवेदना, भाव और संगीत का मेल किया। संगीत की ऐसी धारा का प्रवाह किया जिसमें सकल विश्व की हॉर्मनी है।
रवीन्द्र संगीत माने जिसमें स्वरानंद के लिये ही गान न हो बल्कि सुर माधुर्य के साथ गीत रस भी हो। एक साथ कईं रागों का मिश्रण। रागाश्रयी की बजाय भावाश्रयी संगीत। सुनें तो गुनने का मन करे। कोरा गान भर नहीं, अंतर्मन अनुभूतियों का भव। शास्त्रीय राग-रागिनियां की छटा परन्तु उनमंे निहित बंधनों की क्लिष्टता नहीं। लोक संगीत मंे निहित मानव मन की तमाम सहज संवेदनाएं परन्तु कहीं कोई असंयत आवेग और चित्कार नहीं।
मुझे लगता है, प्रकृति, पूजा, भक्ति प्रेम और ऋतुओं में निहित आनंद की खोज कहीं है तो वह रवीन्द्र संगीत में ही है। कारण, वहां पारम्परिक राग-रागिनियों का मूल परिवेश तो है परन्तु श्रवण मंे आनंद के अवरोधों की जकड़न नहीं है। बंधनों में निर्बन्ध। माने रवीन्द संगीत।
अभी बहुत समय नहीं हुआ। रवीन्द्र जन्मशती आयोजनों के सिलसिले में साहित्य अकादमी की ओर से भारतीय लेखकों के दल में शांतिनिकेतन जाना हुआ तो बांगला कथाकार मित्र बिनोद घोषाल के साथ रवीन्द्र संगीत का आस्वाद करते जैसे अपने आपको फिर से जिया। लगा, रवीन्द्र संगीत खाली संगीत भर नहीं है। भावों का आनंद प्रवाह वहां है। रवीन्द्र संगीत माने पूजा पर्व गान, माने ऋतु पर्व गान। माने स्वदेश पर्व गान, माने भक्ति पर्व गान। रवीन्द्र के गान में आत्मा की अभ्यर्थना है। यह जब लिख रहा हूं, जेहन में रवीन्द्र संगीत अमृत रस घोलने लगा है, ‘आमि तोमारो शौंगे बेंधेछी आमारो प्राण शूरेरो बांधोने...तुमि जानोना आमि तोमारे पेयेछि अजाना शाधोने...’ और ‘स्वर्ग हइते बिदाय...’, ‘आजि झोझेर राते तोमार अभिसार...’ गीत और भी है। सुनते हैं तो दर्शन की गहराईयों में उतरने लगते हैं। अनुभूतियों का अनुठा भव जो वहां है। भावांे के अनुभव का भव।
अकेलेपन का गान। किसी के साथ की जरूरत वहां कहां है। रवीन्द्र गान का यही तो संदेश है, ‘जदि तोर डाक सुने केउ ना आरने तबे एकला चलो रे...’। यदि कोई साथ नहीं आता है तो कोई बात नहीं। अकेले चलो। चलते चलो। कोरा गान नहीं बल्कि अंर्तमन संवेदनाओं की भावाभिव्यक्ति। आनंद का गान। कलाओं के मर्म को जो गहरे से जीता है, वही रच सकता है ऐसा कालजयी संगीत। इसीलिये तो रवीन्द्र कालजयी हैं। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला आदि तमाम कलाओं के वे साधक, संवाहक हैं।


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