Friday, February 10, 2012

कर्षयति इति कृष्णः

कृष्ण का अर्थ है, जो आकर्षित करे। बाह्य रूप मंे ही नहीं, आंतरिक रूप मंे भी। कहा भी तो गया है, ‘कर्षयति इति कृष्णः।’ माने चिरंतन है जिनका आकर्षण। यह कृष्ण ही तो हैं जिन्होंने 64 कलाओं में पूर्णता को जिया। चन्द्रमा की भी 14 ही कलाएं है परन्तु कृष्ण तो तमाम कलाओं की पूर्णता लिए हैं। पूर्णावतार भगवान श्री कृष्ण। उनके मोहक स्वरूपों पर जब भी मन विचारता है, त्रिभंगी मुद्रा में खड़े गोपियों को रिझाने वाले बंशी बजैया कान्हा की छवि आंखों के सामने घूमती है तो महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन रथ के सारथी बन उन्हें कर्मयोग की शिक्षा देते कृष्ण भी औचक नजरों के सामने प्रकट होते हैं। श्रीमद्भागवत् में गोचारण के बाद घर लौटती गायों के पीछे गऊओं के खुर से उठती धूल से सने श्री कृष्ण का रूप वर्णन भी जेहन में अनायास ही कौंधता है। चेहरे पर पसीने की छिटकी बूंदे और धूल से लथपथ थका थका उनका चेहरा। अद्भुत शोभा लिये। छवियां और भी है। राधा संग रास रचाते कृष्ण। सबको थिरकाते स्वयं अचल कृष्ण। यह कृष्ण ही हैं जिनके लोकरंजक स्वरूप ने जन-मानस को सदा ही आनंदित, आल्हादित किया है। नृत्य, संगीत और चित्रकला तो कृष्ण लीलाओं से जुड़कर ही सदा समृद्ध होती रही है।
बहरहाल, कुछ समय पहले ही जवाहर कला केन्द्र की सुरेख कला दीर्घा में कृष्णा मौर्य के बनायी कृष्ण कलाकृतियों को देखकर सुखद अनुभूति हुई। रेखाओं के गत्यात्मक प्रवाह में कृष्ण और उनके प्रतीक रूप में मोर पंखों के जरिये अद्भुत सौन्दर्य सर्जना जैसे की गयी थी। कृष्णा कृष्ण की मोर मुकुट बंशीवाले की छवि से इस कदर मुग्ध है कि कैनवस में प्रेम के बहुविध रूपों में उन्हें ही रूपायित किया है। हरे, काले, लाल, पीले और नीले रंगों का उसका सधा प्रयोग भी बहुत से स्तरों पर मन को स्पन्दित करता है। स्ट्रोक तो खैर कृष्णा के महत्वपूर्ण हैं ही। मोर पंखों के रेखीय आयाम का कृष्णा का एक चित्र बेहद महत्वपूर्ण है। इसमें रेखाओं के जरिये कृष्ण-राधा के रूपों का बेहद मोहक अंकन किया गया है-मूर्त में अमूर्त। माने वहां रेखाओं में ही कृष्ण की मुरली, राधा की मूरत, कृष्ण की सूरत और और रास का अद्भुत रचाव किया गया है। गौर करेंगे तो मोर पंखों का सौन्दर्य ही हर ओर, हर छोर नजर आयेगा। मुझे लगता है, रेखाओं की यही तो वह गतिशीलता है जिसमें संगीत, नृत्य को कैनवस जीवंत करता है। एक ओर चित्र है जिसमें राधा-कृष्ण की बस मूरत है...मोर पंख यहां भी अंतर्मन संवेदना के संवाहक बने हैं। चित्र और भी हैं जिनमें राधा-कृष्ण के प्रेम के बहाने जीवन सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में रंगो और रेखाओं की उत्सवधर्मिता को कृष्णा ने जैसे जिया है।
राधा-कृष्ण के बारे में रोचक तथ्य यह भी है कि महत्वपूर्ण पुराण इस बारे में मौन ही है। यह गीत गोविन्द रचयिता जयदेव ही थे जिन्होंने राधा-कृष्ण की मोहक लीलाओं को स्वयं अपने काव्य मंे रूपायित करते दूजों को भी निरंतर इसकी प्रेरणा दी। कृष्ण-राधा प्रसंग उनके कारण ही फिर लोक में इस कदर रचे-बसे कि जीवन में प्रेम की कल्पना का प्रमुख आधार ही यही हो गये।
बहरहाल, कृष्णा मौर्य के कृष्ण चित्र ही नहीं बल्कि कलादीर्घा में लगाये उनके ऐतिहासिक सामोद पैलेस के चित्र भी अलग से ध्यान खींचते लगे। हां, सामोद महल के विभिन्न द्वार, वहां के स्थापत्य और शिल्प सौन्दर्य को कैनवस पर बरतते कृष्णा ने दृश्य के सौन्दर्य आयामों को ही छुआ लगता है। अच्छा होता वह दृश्य संवेदना के उन आयामों पर भी जाती जिसमे किसी ऐतिहासिक इमारत का अतीत वक्त में हो रहे बदलावों के साथ वर्तमान मंे ध्वनित होता है। यथार्थ के कैनवस अंकन में यही तो महत्वपूर्ण होता है कि हम दिख रहे सौन्दर्य की बजाय उस अदेखे को भी कैनवस पर अनुभूत कराएं जिसमें समय की महीन पदचाप ध्वनित होती है। किसी कलाकृति की जीवंतता आखिर इसी मंे तो है कि इतिहास का मौन भी वहां रंग और रेखाओं में मुखर हो।


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