संगीत-नाट्य के आदि प्रवर्तक हैं भगवान शिव। कहते हैं, कभी अपनेे नृत्य के बाद उन्होंने डमरू बजाया। डमरू की ध्वनि से ही शब्द ब्रह्म नाद हुआ। यही ध्वनि चौदह बार प्रतिध्वनित होकर व्याकरण शास्त्र के वाक् शक्ति के चौदह सूत्र हुए। नृत्य में ब्रह्ाण्ड का छन्द, अभिव्यक्ति का स्फोट सभी कुछ इसी में छिपा है। महर्षि व्याघ्रपाद ने जब शिव से व्याकरण तत्व को ग्रहण किया तो इस माहेश्वरसूत्र की परम्परा के संवाहक बने पाणिनि।
बहरहाल, आदि देव हैं भगवान शिव। देवों के भी देव। सुर-ताल के महान ज्ञाता। नृत्य की चरम परिणति शिव का ताण्डव ही तो है। नटराज जब नृत्य करते हैं तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वेश्वर की लीला का उच्छास उनके अंग-प्रत्यंग मंे थिरक उठता है। शिव का नृत्य तांडव है और पार्वती का लास्य। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार लास्य का अर्थ लीला या क्रीडा करना है। स्त्री-पुरूषांें के आपसी मनोभावों के आधार पर होने वाली लीला लास्य है। यह एक ही अर्थ या अलग-अलग अर्थों पर अवलम्बित हो सकती है। पारम्परिक मान्यता यह भी है कि नटराज शिव ने पहले पहल पृथ्वी पर तमिलनाडू के चिदम्बरम मंदिर मंे ही संध्या ताण्डव किया। चिदम्बरम् के मंदिर जाएं तो ध्यान दें, वहां नटराज पंचम प्राकार के अंदर हैं। यहां उनका आकाश स्वरूप हैं। माने कहीं कोई अवकाश नहीं। नटराज की शक्ति-स्वरूपा नाट्येश्वरी भी है।
मन में कल्पना होती है, नटराज शिव मगन हो नृत्य कर रहे हैं। वह जब नृत्य करते हैं तो एकाकी कहां होते हैं! सृष्टि के विकास में सभी प्रादुर्भूत सहायक शक्तियां वहां एकत्र है। ब्रह्मा ताल देते हैं। सरस्वती वीणा बजाती है। इन्द्र बांसूरी बजाते हैं और विष्णु मृदंग। लक्ष्मी गान करती है। भेरी, परह, भाण्ड, डिंडिम, पणन, गोमुख आदि अनद्ध वाद्यों से गुंजरित है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड।
बहरहाल, नटराज प्रवर्तित नृत्य के अनेक प्रकार हैं। ताण्डव सर्वप्रमुख है। कहते हैं शिव ने त्रिपुरदाह के बाद उल्लास नर्तन किया। भगवान शिव उल्लास में आकर पृथ्वी पर अपना पैर पटके भुजाओं को संकुचित करते हुए अभिनय करते हैं ताकि यह लोक उनकी भुजाओं के आघात से छिन्न-भिन्न न हो जाये। शिव तीसरा नेत्र खोले तो यह लोक भस्म हो जाये सो वह तृतीय नेत्र बंद करके ही नाच करते हैं। भोले भंडारी नाचने लगे तो सब कुछ भूल गये। नाचते ही रहे। निर्बाध। कहते हैं, उन्हें संयत करने के लिये ही तब पार्वती ने लास्य नृत्य किया। शिव ताण्डव रस भाव से विवर्तित था और पार्वती का किया लास्य रस भाव से समन्वित। कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में शिव के नृत्य का वर्णन करते लिखा है, यह नाट्य देवताओं की आंखों को सुहाने वाला यज्ञ है। पार्वती के साथ विवाह के अनन्तर शिव ने अपने शरीर में इसके दो भाग कर दिये हैं। पहला ताण्डव है और दूसरा लास्य। ताण्डव शंकर का नृत्य है-उद्धत। लास्य पार्वती का नृत्य है-सुकुमार तथा मनोहर।
ताण्डव नामकरण की भी रोचक कथा है। कहते हैं महादेव के नृत्य का अनुकरण उनके शिष्य ‘तण्ड’ या ‘तण्डु मुनि’ ने किया। तण्ड मुनि द्वारा प्रचारित होने से यह ताण्डव कहलाया। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र मंे इसका सांगोपांग उल्लेख है। शिव आज्ञा से ही तण्डु ने उनके इस नृत्य को अभिनय के प्रयोग निमित्त भरतमुनि को दिया। अभिनवगुप्त की टीका मंे तण्डु को ही भगवान शिव का प्रख्यात गण नन्दी बताया गया है।
बहरहाल, नटराज की नृत्यशाला यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड है। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक नटराज का नृत्य ही है। शिव के आनंद तांडव के साथ ही सृजन का आरंभ होता है और रोद्र ताण्डव के साथ ही संपूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाता है। यह जब लिख रहा हूं, नटराज स्तुति ही जेहन में कौंध रही है, ‘सत सृष्टि तांडव रचयिता नटराज राज नमो नमः/हे आद्य गुरू शंकर पिता/गंभीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्माण्डना/ नित होत नाद प्रचंडना, नटराज राज नमो नमः।’ माने हे नटराज आप ही अपने तांडव द्वारा सृष्टि की रचना करने वाले हैं। आप ही परम पिता और आदि गुरू हैं। हे शिव, यह संपूर्ण विश्व आपके मृदृंग की ध्वनि द्वारा ही संचालित होता है। इस संसार में व्याप्त प्रत्येक ध्वनि के स्त्रोत आप ही हैं। हे नटराज राज आपको नमन है! नमन प्रभू। नमन!
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