अखिलेश के यहां स्म्रतियों की अनूठी कैनवस भाषा हैं। ऐसी जिसमें संवेदनाओं का अपनापा है। मानव मन के उत्सवधर्मिता कोलाज की चित्रभाषा के अपने कहन में वह संवाद के लिए निरंतर हमें उकसाते है। प्रथमतः उनकी कलाकृतियों का आस्वाद करते यही धारणा बनती है। संयोग देखिए, उनके लिखे की पढ़त में इसकी पुष्टि भी हो जाती है। राजकमल प्रकाशन ने हाल ही उनकी ‘अचम्भे का रोना’ जो पुस्तक प्रकाशित की है उसमें कैनवस के समानान्तर, उससे इतर कला और कलाकारों के अंतरंग और बहिरंग में जाते कला अनुभवों की एक नई भाषा जैसे उन्होंने विकसित की है। अपनी इस भाषा में वह रजा, अम्बादास, रामकुमार, हुसैन, मनीश पुस्कले, प्रभाकर बर्वे, नागजी पटेल, जनगणसिंह श्याम अवधेष यादव, मनजीत बावा जैसे ख्यात कलाकारों के अंतरंग में भी गए हैं और बहिरंग में भी।
कला और कलाकृतियों के यादों के अपने वातायन में वह द्रष्टि स्पष्टता में रंग और रेखाओं की ही नहीं बल्कि उन्हें बरतने वालों के मन के भीतर जाते, उनकी सोच से भी अनायास ही साक्षात् कराते हैं। मसलन वह जे.स्वामीनाथन की कलाकृतियों की वस्तुहीनता पर जाते रूप के विलोपन में इंच दर इंच चित्रित उनके कैनवस की बारीकियों को बांचते हैं तो हुसैन के कलाकर्म को उनके व्यक्तित्व के आईने से निहारते वह सहज उनकी कविताओं को याद करते हैं, किस्सागोई का बयान करते हैं और बहुत से वह अनछुए पहलू भी बताते हैं जिनमें उनके चित्रों में निहित संकेताक्षरों की कथा है, याद दिलाने पर वादा निभाने के लिए मुम्बई से औचक दिल्ली पहुंचने की दास्तां भी। अनुभूति के इस खरेपन में अखिलेश कलाकारों के चित्र संस्कारों से भी अनायास ही साक्षात् करा देते हैं।
जनगण के चित्रों को वॉन गॉग के बरक्स रखते वह दोनों की ही चित्रकला की रूढ़ियां तोड़ने की विशेषताओं में हमें ले जाते हैं तो रजा के कैनवस को रंगों का घर बताते है। अम्बादास के चित्रों में भटकते शुक्राणु रूप संधान में वह रचने के क्षण के सौन्दर्य को अनायास ही पकड़ते हैं तो प्रभाकर बर्वे के चित्रों की उन बारीकियां में भी हमें ले जाते हैं जिनमें कोई चित्रात्मक कविता समय और अवकाश के संबंधों को गहरे से व्याख्यायित करती है। प्रकृति प्रदत्त सहज बोध से देह के द्रश्य को चित्रित करते कलाकार के रूप में वह रामकुमार को याद करते हैं और नागजी पटेल को हेनरी मूर के समक्ष रखते है। मनीश पुश्कले के चित्रों को कविताओं की तरह पढ़ना संभव बताते वह मनजीत बावा के रूपाकारों, रंग के अचरज लोक में उनके व्यक्तित्व की तलाश करते हैं तो स्वयं अपनी रचना प्रक्रिया को कैनवस के अंतिम सत्य तक पहुंचने की खोज बताते वह कला की खोज को सत्य की खोज बताते हैं। पुस्तक के अंत में अशोक वाजपेयी का अखिलेश से बेहद महत्वपूर्ण संवाद है। इसमें वह कहते हैं कि कला के एकान्त में ही सार्वजनिकता जन्म लेती है।
हमारे यहां कलाकारों ने दूसरों की कला और उनके व्यक्तित्व पर कम ही लिखा है। इस दीठ से ‘अचम्भे का रोना’ किसी कलाकार की उदात्त चेतना में कला और कलाकारों के बारे में हमें सर्वथा नये अर्थबोध देती अनुठी कला पुस्तक है। इसमें दूसरे की कलाकृतियों, उनके अपनापे में जाते सहज, सरल और आत्मीय हैं हमारे अखिलेश!
"डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 18-02-2011
have no words...................
ReplyDeletegreat