Friday, February 11, 2011

फोटोग्राफी का नहीं छाया-कला का सम्मान


छायांकन की सुदीर्घ यात्रा का यह वह दौर है जब छापाचित्र, पेंटिग और मूर्तिशिल्प इन तीनों में ही छायाकारी का प्रभाव देखा जा सकता है। कभी घटिया मानकर भले फोटोग्राफी को कला मंे स्वीकार नहीं किया गया परन्तु कला स्वरूपों की सृजन प्रक्रिया का आज छायांकन ही प्रमुख आधार बनता जा रहा है। इधर न्यू मीडिया आर्ट की जो अवधारणा उभरी है, उसका तो प्रमुख आधार ही फोटोग्राफी ही है।

बहरहाल, पिछले दिनों पद्म अलंकरणों की सूची में होमाई व्यारावाला का नाम देखकर सुखद अचरज हुआ। चलो, फोटोग्राफी आखिर कला का दर्जा पाते सम्मानित हो ही गयी। होमाई व्यारावाला आजादी से पहले से छायांकन कर रही है। देश की पहली महिला फोटोग्राफर। आजादी से पहले और आजादी के बाद के भारत के बेहद संवेदनशील क्षणों को उन्होंने निरंतर अपनी छाया-कला में संजोया है। जब-तब पत्र-पत्रिकाओं में उनके बारे में पढ़ते उनके छायाचित्रों सेे रू-ब-रू भी होता रहा हूं परन्तु संयोग देखिए, कुछ समय पहले ही जब दिल्ली मंे था तब नेशनल मॉर्डन गैलरी ऑफ आर्ट में पहली बार उनकी छायाचित्र प्रदर्शनी को देखने का भी सुअवसर मिल गया।

अलकाजी फाउण्डेशन द्वारा राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में प्रदर्शित उनके छायाचित्रों को देखते मुझे लगा, जो चित्र होमाई व्यारावाला ने अपने कैमरे से लिए हैं, वे इतिहास के दस्तावेज भर नहीं है बल्कि उनमें कलात्मक सौन्दर्य, अंतर्मन संवेदना का अनूठा भव भी है। मसलन लॉर्ड माउन्टबेटेन, मार्शल टीटो, एजिलाबेथ, रिचर्ड निक्सन, डायना, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, विजयलक्ष्मी पंडित, इन्दिरा गॉंधी के जीवन के जो प्रसंग उन्होंने अपने कैमरे से कैद किए हैं, उनमें यथार्थ का अंकन भर नहीं है बल्कि समय के साथ व्यक्तियों, वस्तुओं के रूप, टैक्सचर की अनुभूत गति को भी उन्होंने भीतर की अपनी संवेदना आंख से गहरे से पकड़ा है। फोटो जब कोई खिंचवाता है तो सजग हो जाता है, उसकी यह सजगता छायाकारी की स्वाभाविकता को भंग कर देती है।...एक प्रकार से खींचे गए फोटो में तब संवेदना तिरोहित हो जाती है। वह साधारण दृश्य चित्र भर रह जाता है परन्तु होमाई व्यारावाला के छायाचित्रों का आकाश इससे परे है। उन्होंने अपने कैमरे से ऐतिहासिक क्षणों को भी कैद किया है तो अपनी उस तीसरी संवेदन आंख का सदा सहारा लिया है जिसमें समय के अवकाश को पकड़ा जाता है। मसलन महात्मा गॉंधी की शवयात्रा के क्षणों को कैद करते उनके कैमरे ने हजारों-हजार नम आंखों का जो दर्शाव किया है, उसमें निहित भावनाओं को देखने वाला आसानी से पढ़ सकता है। मुझे लगता है, यह उनकी तीसरी संवेदन आंख ही है जिसमें राजनीतिक घटनाक्रमों को कैद करते हुए भी उन्होंने सूक्ष्म वस्तुओं, दृश्यों के बहाने तत्कालीन परिवेश का एक प्रकार से छायांकन इतिहास रचा है। इसमें कलात्मक सौन्दर्य है। उनके छायाचित्रों के अद्भुत लोक में जाते औचक आंख ठहर जाती है जब संजय गॉंधी के जन्मदिन पर बिल्ली का मुखौटा लगाए पं. नेहरू को हम देखते हैं। तब भी ऐसा ही होता है जब जिन्ना भारत में अंतिम प्रेस कॉन्फ्रेस करते हुए विभाजन के बोये बीज का अंकुर फूटा रहे हैं। छायांकन के इस लोक में तमाम दूसरे वह घटनाक्रम भी हैं जिनमें किसी विशेष समारोह के बहाने उसमें निहित विषय की संवेदना को स्वर दिया गया है।

होमाई व्यारावाला 98 वर्ष की हैं। पदम् अलंकरण कैमरे के पीछे की उनकी उस तीसरी संवेदन आंख का सम्मान है जिसमें उन्होंने इतिहास की घटनाओं, प्रसंगों को भीतर के अपने कलात्मक बोध से जिया है। फोटोग्राफी का नहीं यह छाया-कला का सम्मान है।
(कला तट, 11-2-2011)

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