आरायस , आलागीला, मोराकसी। आप सोच रहे होंगे ये शब्द मैं कहां से ले आया। हिन्दी में फ्रेस्को पेंटिंग के लिये यही शब्द प्रयुक्त होते हैं। भित्ति चित्रण पद्धति की इस परम्परा पर जब भी विचार करता हूं, देवकी नंदन शर्मा याद आते हैं। कहूं, यह शर्मा ही थे जिन्होंने फ्रेस्को का भारतीय दीठ से एक प्रकार से पुनराविष्कार किया। फ्रेस्को ही क्यों बातिक, पेपरमेषी और तमाम दूसरी परम्परागत कलाओं को जीवित करने, उनमे युगानुकूल परिवर्ततन के साथ प्रयोगधर्मिता के जो तान-बाने उन्होंने बुने, उन्हीं से तो यह सब कलाएं फिर से सामयिक हुई।
बहरहाल, सात साल पहले इसी अप्रैल माह की 24 तारीख को वह चिरमौन हुए। कुछ दिन पहले जवाहर कला केन्द्र में ख्यात कलाकार नाथूलाल वर्मा के निर्देषन में फ्रेस्को पेंटिंग का षिविर आयोजित हुआ तो देवकी नंदनजी की यादें जेहन में कौंधने लगी थी। ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और उनकी परम्परा में बढ़त करने वाले कलाकार भवानीषंकर शर्मा से संवाद हुआ। मैंने सुझाव दिया कि देवकी नंदन शर्मा के कला आयामों पर अकादमी क्यों नहीं एक व्याख्यान माला ही आयोजित करे। आखिर जड़ों सींच कर ही तो कला का पेड़ हरा हो सकता है!
बहरहाल, देवकी नंदन शर्मा ने वह किया जो कोई ओर नहीं कर सका। अजन्ता के भित्ति चित्रों के साक्षात् में उनके मिटते अस्तित्व ने उन्हें जैसे उद्धेलित किया। उन्होंने जैसे तभी यह तय कर लिया कि भित्ति चित्रों की अतीत की विरासत को वह सहेजेंगे। यह वर्ष 1949 की बात है। वनस्थली के कच्चे भवनों का पक्के में उनके प्रयासों से ही रूपान्तरण हुआ। इनमें अजन्ता चित्रों की अनुकृतियां के साथ ही भित्ति चित्रण के सर्वथा नवीन प्रयोग हुए। शैलेन्द्रनाथ डे, बिनोद बिहारी मुखर्जी सरीखे कला आचार्यों को वनस्थली बुला भित्ति चित्रण की परम्परा का उनके हथूके पुनराविष्कार हुआ।
वनस्थली में पचास के दषक से ही देवकी नंदन शर्मा ने फ्रेस्को के विधिवत् प्रषिक्षण षिविर भी आयोजित करवाने प्रारंभ किये। कला षिक्षण को इससे नये आयाम मिले। यही नहीं बातिक, पेपरमेषी जैसी पारम्परिक कलाओं की समृद्ध परम्परा में युगानुकूल परिवर्तन करते उन्होंने लुप्त होती इन कलाओं को एक प्रकार से जीवनदान दिया। जयपुर रेलवे स्टेषन पर फ्रेस्को तकनीक से बनायी उनकी ढोला-मारू कलाकृति बरसों तक यात्रियों को लुभाती रही। वनस्थली कला मंदिर की दीवारों पर राजा पुलकेषी दरबार, बोधिसत्व, पदमपाणी और अन्य जातक कथाओं पर बनाये उनके आरायष अपनी मौलिकता में भित्ति चित्रों की हमारी समृद्ध परम्परा के ही संवाहक हैं।
फ्रेस्को को जीवित करने के साथ ही पक्षी चित्रण का भी देवकी नंदनजी ने सर्वथा नया मुहावरा हमें दिया। उनके उकेरे कबूतर, मोर, भांत-भांत की चिड़ियाओं, कोव्वों को देखते दीठ संवेदना के सर्वथा नये बिम्बों से साक्षात्कार होता है। ऐसा है तभी तो कभी ब्रिटिष इन्फॉर्मेषन सर्विस ने उन्हें विष्व के 18 सर्वश्रेष्ठ पक्षी चित्रकारों की सूची में शुमार किया था।
प्रकृति, लोक एवं पौराणिक आख्यानों को देवकी नंदन शर्मा ने अपने चित्रों में सर्वथा नयी दीठ दी। फ्रेस्को तकनीक को नयी पहचान दी। कला के विभिन्न माध्यमों में काम करते उनके चित्रों को जब भी देखता हूं, प्रकाष और छाया प्रभाव का भी लयात्मक नाद वहां पाता हूं। परम्परागत चित्रों में प्रयोगधर्मिता करते के साथ उन्हें सामयिक करने का महत्ती कार्य ही देवकी नंदन शर्मा ने नहीं किया बल्कि दैनिन्दिनी जीवन के अनुभवों को चित्रों में परोटते जीवन दर्षन की लय को बेहद षिद्दत से उन्होंने अपने चित्रों में पकड़ा है। मुझे लगता है, यह देवकी नंदन शर्मा ही हैं जिन्होंने पेड़ो ंपर चहचहाती चिड़िया, कबूतर, कौव्वे, मोर आदि की अपने तई वैयक्तिक पुनर्व्याख्या की है। मानवीय अनुभव अपने आस-पास के परिवेष को सिर्फ आंख से देखना भर ही तो नहीं है वह महसूस करना भी है जो आंख की पूतली की परिधि से परे भी दिखाई देता है। देवकी नंदन शर्मा का चित्रलोकयही तो महसूस कराता है।
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