Sunday, April 29, 2012

अंतर्मन संवेदना जगाते चित्र



कला का यह वह दौर है जिसमें कैनवस पर प्रयोगधर्मिता  का ताना-बाना बुनने की होड़ मची है तो संस्थापन में अचम्भित करने की। मानव मन संवेदना के साथ कला की सहज सौन्दर्य सृष्टि इसी से बहुतेरे स्तरों पर तिरोहित भी हो रही है। माने संवेदना से स्वतः होने वाली अभिव्यक्ति की बजाय कला प्रयासों की यांत्रिकता में गुम हो रही है। सब ओर इसी एकरसता को जैसे जिया जा रहा है। 
बहरहाल, पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में युवा कलाकार मालचन्द पारीक के चित्रों से रू-ब-रू होते सुखद लगा। बंधी-बंधायी चित्र परम्परा की बजाय वहां अंतर्मन संवेदना को सर्वथा नये ढंग से उजागर जो किया गया था। प्रयोगधर्मिता परन्तु खाली प्रयोग के लिये ही नहीं। विषय-वस्तु की संवेदना भी वहां थी। मिश्रित माध्यम के पारीक के चित्रकर्म में भीतर की उसकी संवेदना का उजास तो है ही अभिव्यक्ति व विषुद्ध सौन्दर्य की खोज के बीच का द्वन्द भी दिखाई दिया। इसी से रूपायित ‘क्रांकीट जंगल’ की उसकी चित्र श्रृंखला देखने के बाद भी जेहन में बसती है।
बढ़ती आबादी के साथ कटते जंगल और उस पर इमारतों का खड़ा होता क्रांकीट संसार इन चित्रों के केन्द्र में है। खास बात यह है कि मालचन्द ने आत्मिक अनुभूति में जीवन के बदलते ढर्रे और तेजी से आ रहे बदलाव को सर्जन में गहरे से सहेजा है। शहरों की मॉल और फ्लेट संस्कृति पर एक प्रकार से अपनी कला से प्रष्न भी खड़े किये है। प्रष्न यह कि किस किमत पर हम इस संस्कृति के रहनुमा बन रहे हैं? प्रष्न यह कि सुकून का हमारा मापदंड क्या आधुनिक सुख सुविधाएं ही हैं? प्रष्न यह कि जंगल साफ कर अदेखे आकाष में हम कौनसे सपने चुन रहे हैं? तमाम उसके चित्रों का आस्वाद करते ऐसे ही सवाल और जेहन में कौंधते हैं। मुझे लगता है, चित्र सर्जन की यही वह मुखरता होनी चाहिए जिसमें दृष्य हमसे संवाद करे, भीतर की हमारी संवेदना को जगाए।
मालचन्द के चित्राकाष में खूबसूरत इमारतों में एक के ऊपर दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी और भी बहुत सी और खड़ी मंजिलों में गुम होते आकाष में वस्तुनिरपेक्ष रूप में विचारों का अनूठा प्रवाह है। इस प्रवाह में भौतिकता की दौड़ में तेजी से आ रहे मूल्यों के बदलाव को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। बाह्य रूप के सादृष्य में प्रतीकात्मक रूप मंे सौन्दर्य की अनूठी सृष्टि यहां है तो प्रकृति के गुम होते मूल्यों का रूदन भी है। ‘क्रांकीट जंगल’ श्रृंखला का रंग लोक भी अनूठा है। गहरे, हल्के और धूसरित के रंग बिम्ब। जल रंग, तेलीय, एक्रेलिंग का मिश्र प्रयोग। ज्यामीतिय संरचना में विषय-वस्तु के सूक्ष्म चितराम के अंतर्गत अंतर्मन संवेदना को इनमें गहरे से जिया जो गया है।
बहरहाल, मालचन्द के इन चित्रों को देखते हुए जेहन में वस्तु चित्रकार शार्द की याद आती है तो पौल सेजान के बनाए चित्र भीं औचक कोंधने लगते हैं। इसलिये कि दृष्य प्रभाव के साथ ही रूप तत्व को भी उसके चित्रों में तीव्रता से अनुभूत किया जा सकता है। मसलन बहुमंजिला एक इमारत के चित्र में मरे हुए शेर की खाल केन्द्र में है, पार्ष्व में जंगली जीवों के सफाया किये जाने के तमाम औजार आधुनिकता की चकाचौंध से झांकते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे ही फिष एक्वेरियम, गोल्डन मेमरी, एडजस्टेबल हैप्पीनेस, चेंज द हाउस, इट्स एनफ आदि चित्रों में जंगल काट बनायी इमारतों, बिजली के बेतरतीब झुलते तारों, होर्डिंग्स के बहाने जीवन के उस सच को मुखरित किया गया है जिसमें प्रकृति से दूर जीवन में यांत्रिकता का अनायास वरण हो रहा है।  
इन चित्रों को देखते कहीं पढ़ा औचक याद आ रहा है, ‘कला वास्तव के नैसर्गिक दृष्य रूप व काल्पनिक प्रतिकात्मक रूप के बीच घड़ी के  लंगर के समान झूलती रहती है।’ 


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