Friday, December 23, 2011

अनंत अर्थ संभावनाओं का छायाकला आकाश

कहते हैं, जर्मनी के ज्योतिर्विद और वैज्ञानिक जॉन हरसेल ने 1839 ईस्वी में अपने एक मित्र को लिखे पत्र में पहले पहल फोटोग्राफी शब्द का इस्तेमाल किया था। इससे पहले 1826 में फ्रांसीसी आविष्कर्ता निप्से ने विष्व का पहला फोटोग्राफ बनाया था। छायांकन कृति देखकर तभी पेरिस में चित्रकार-प्राध्यापक पॉल देलारोष ने यह कहा कि चित्रकला आज से मर गयी है तो ब्रितानी सैरा चित्रकार टर्नन ने भी इसे कला का अंत बताया था। फ्रांसीसी कवि बोदलेयर ने तो फोटोग्राफी को अन्य कलाओं की दासी तक की संज्ञा दी थी परन्तु संयोग देखिये तकनीक की दृष्टि से बेहद संपन्न डिजिटल हुई आज फोटोग्राफी तमाम हमारे कला स्वरूपों का प्रमुख आधार बनती जा रही है। जो कुछ दिख रहा है, उसे हूबहू वैसे ही कैमरे में यदि उतार लेते हैं तो वह फोटोग्राफी ही होगी परन्तु यदि दृष्य मंे निहित संवेदना, उसके अनुभूति सरोकारों को भी यदि छायाकार कैमरे से अपनी दीठ देता है तो इसे फोटोग्राफी नहीं छायाकला ही कहेंगे। तकनीक तब कला का साधन होगी, साध्य नहीं। कहें तो यह छायाकला ही है जिसमें विस्तृत दृष्य को भी एक छोटे से आयतन में तमाम उसकी बारीकियों के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है तो लघुतम दृष्य को भी दुगने-तिगुने और उससे भी बड़े आकार में सहज दिखाया जा सकता है। थर्मोग्राफी के अंतर्गत अब तो यह भी होने लगा है कि आप किसी जीवन्त वृक्ष के पत्ते के कुछ अंष को काट कर उसके संपूर्ण भाग को दर्षा सकते हैं। इसे तकनीक का कमला कह सकते है परन्तु फोटोग्राफी का दूसरा सच यह भी है कि इसके जरिये यथार्थ में निहित तमाम हमारी दृष्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का कला रूपान्तरण किया जा सकता है। शबीहों के लिये फोटोग्राफ का आधार नया कहां है!बहरहाल, इससे कौन इन्कार करेगा कि इतिहास कलाओं को जगाता है। फोटोग्राफी के इतिहास को इसी नजरिये से देखे जाने की जरूरत है। भले आरंभ में इसे कैनवस कला के दौर की समाप्ति के रूप में देखा गया परन्तु कालान्तर में इसने कलाओं के मोटिफों में जो सर्जनात्मक बदलाव किये उनसे ही कैनवस कला समृद्ध भी हुई। प्रकाष-छाया सम्मिश्रण के अंतर्गत जीवन से जुड़े दृष्यों, षिल्प सौन्दर्य की बारीकियांे में जाते दृष्यावलियों के जो आख्यान कैमरे ने हमारे समक्ष रखे हैं उनमें कला के गहरे सरोकार ही प्रतिबिम्बित हुए हैं। अभी बहुत समय नहीं हुआ, जयपुर के जंतर-मंतर पर ख्यात ग्राफिक कलाकार जय कृष्ण अग्रवाल की छाया कलाकृतियांे का आस्वाद किया था। छाया-प्रकाष और उससे आभासित स्पेस के अंतर्गत उन्होंने जंतर-मंतर की नयी सौन्दर्य सृष्टि की। प्रिंट मंेकिंगं के तहत जयकृष्णजी ने हमारे समक्ष दूरी की नजदीकी के साथ ही इतिहास के उस अपरिचय से भी परिचय कराया जिसमें दीवारों, सीढ़ियों और पाषाण यंत्रों से संबद्ध विषय-वस्तु को खंड खंड मंे अखंड किया गया है। छाया-प्रकाष की स्वायत्त सत्ता का अद्भुत रचाव करते उन्होंने अपनी इस कला में इतिहास, वर्तमान और भविष्य को जैस गहरे से बुना है। मसलन यहां पत्थरों का पीला रंग है तो प्रकाष से परिवर्तित इस पीले का लाल भी है। स्पेस से झांकते नीले आसमान के रंग की उत्सवधर्मिता भी यहां है अंधेरे में निहित रहस्य की बहुत सी परतें भी उघड़ती साफ दिखाई देती है। कैमरे से जंतर-मंतर की प्रतिकृति नहीं बल्कि सजीव सरल कला छवियों का बेहतरीन भव एक प्रकार से उन्होंने अपने तई तैयार किया है। प्रकाष-छाया सम्मिश्रण की उनकी इस कला अभिव्यक्ति में स्थापत्य के नये दृष्य आयाम है। इतिहास का मौन जैसे उनकी इस छायाकला में मुखर हुआ है। दृष्य की अनंत अर्थ संभावनाओं, संवेदनाओं के उनके इस आकाष में फोटोग्राफी के कला रूपान्तरण को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। सच! यह छायाकला ही है जिसमें वस्तुओं के रूप, टैक्सचर, आकार जैसी चक्षुगम्य लाक्षणिकता को यूं उद्घाटित किया जा सकता है। अब भी यदि फोटोग्राफी को कला नहीं कहेंगे तो क्या यह हमारी बौद्धिक दरिद्रता नहीं होगी!

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