Monday, November 21, 2011

भूमण्डलीकरण, बाजार और कला

भूमंडलीकरण माने भूमंडलीय समरूपीकरण। संस्कृति के साथ अर्थ के जुड़ाव से बाजार आधारित कला का सर्वथा नया लोकतंत्र हमारे सामने आ रहा है। यह ऐसा है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के बेरोकटोक आवागमन की संस्थागत सुनिष्चितता विष्व अर्थव्यवस्था को सर्वथा नया आयाम दे रहा है। कहना यह चाहिये कि बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण ने एक ऐसी संस्कृति विकसित करनी प्रारंभ कर दी है जिसमें कलादीर्घाएं उपभोक्ता और उत्पादक के रूप में कार्य करने लगी है। कलादीर्घाएं कला की उत्कृष्टता को अपने तई ही तय करने लगी है। माने जिस कलाकार को चाहे वह आसमान पर बैठा दे और जिसे चाहे नीचे उतार दे। यह प्रचारित भर करना है कि फंला कलाकार की कलाकृतियों विष्व बाजार में सर्वाधिक बिक रही है। भूमंडलीकरण का बड़ा अस्त्र साइबर स्पेस है ही सो वहां संबंधित कलाकार की वर्चुअल कला यात्रा भी करवा दी जाती है।
बहरहाल, जेम्स क्ल्फिर्ड ने ‘द प्रेडिकांमेंट ऑफ कल्चर’ में लिखा भी है, ‘जब कोई यात्रा ‘चेतना में समा कर’ अपना अर्थ देती है तो उसका वृतांत आपकी अस्मिता को मजबूती से घेर लेता है।’ कला मंे आज यही हो रहा है। इन्टरनेट के तहत ऑनलाईन कलादीर्घाएं जिसे चाहे उसे उठा देती है, जिसे चाहे पटक देती है। कभी पॉल विरिलियो ने भी यही तर्क दिया था कि साइबर स्पेस ऐसे भूमंडलीय समय का वाहक है जो स्थानीय समय को आच्छादित कर देगा।...भविष्य मंे बहुत जल्दी ही हमारे इतिहास का निर्माण अपने आप में तात्कालिकता के गर्भ से उपजे सार्वभौमिक-समय में होने लगेगा।’ कला बाजार में कलाकृतियों की बिक्री सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के साथ उसके उपयोगकर्ता के हाथ में जब चली गयी है तो स्वाभाविक ही है कि कलाकृतियां गौण हो गयी है, बाजार प्रमुख हो गया है। कलाकृतियां आत्म विसर्जन की हेतु रही है परन्तु आज बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण में जीवन के उपादान के रूप में नहीं होकर वह बाजार प्रायोजित हो रही है।
 सवाल यह भी है कि बाजारीकरण के इस दौर में आखिर कला की कौनसी नयी भाषा गढ़ी जा रही है। याद पड़ता है, जयपुर में एक पांच सितारा होटल मंे निजी आर्ट गैलरी द्वारा एक राष्ट्रीय कला षिविर का आयोजन किया गया था। षिविर के अंतर्गत देष के ख्यातनाम कलाकारों ने आर्ट गैलरी के लिए ‘ऑन द स्पॉट’ पेंटिंग्स बनाई। षिविर में जब जाना हुआ तो ईजल पर कलाकारों को काम करते देख बेहद सुकून हुआ। कलाकारों और उनकी कला पर लेखन के अपने कर्म के अंतर्गत बहुत से कलाकारों से स्वाभाविक ही था कि संवाद भी हुआ। एक ईजल पर देष के ख्यातनाम कलाकार कार्य कर रहे थे। वे तेजी से कैनवस पर कुछ पोत रहे थे, साथ-साथ मुझसे बातचीत भी कर रहे थे। कोई 20 मिनट बाद ही चौंक कर उन्होंने घड़ी देखी और वहां मौजूद आर्ट गैलरी के कर्मचारी से कहा कि उनकी फ्लाईट का क्या हुआ? कर्मचारी दौड़ा दौड़ा आर्ट गैलरी संचालिका के पास पहुंचा और फ्लाईट वाली बात बताई। संचालिका दौड़ी चली आई। देखती है कलाकार मुझसे संवाद भी कर रहे हैं और उनके हाथ कैनवस पर भी बड़ी तेजी से चल रहे हैं। धीरे से वह मुझे एक किनारे ले जाकर अनुनय विनय में कहने लगी, ‘देखिए, आप इनसे बातचीत कर डिस्टर्ब न करें। उन्हें आज ही दिल्ली लौटना भी है, फिर उनकी पेंटिंग अधूरी ही रह जाएगी।’
 भूमण्डलीकरण में यही आज कला की बाजार भाषा है। यह ऐसी है जिसमें कलाकार को तो अपना काम जल्द से जल्द समाप्त कर कहीं ओर दूसरे काम के लिए भागने की जल्दी है और गैलरी को इस बात की फिक्र कि ब्राण्ड कलाकार का काम बस पूरा हो जाए ताकि उसे बाजार में बेचा जा सके। हर व्यक्ति जल्दी से जल्दी कला से कमा लेना चाहता है। आर्ट गैलरियां कला षिविरों के बहाने ख्यात-विख्यात कलाकारेां को अपने यहां बुलाकार धड़ाधड़ पेंटिंग्स बनवा रही है। बाजार मांग वाले कलाकार भी इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी कला नहीं, उनका नाम बिक रहा है इसलिए वे भी बगैर समय गंवाए अपने कलाकर्म से ज्यादा से ज्यादा कमाने की होड़ में जो चाहे बना रहे हैं। मानों वह बाजार को पहचानने लगे हैं कि वह कभी भी करवट बदल सकता है, चुनांचे क्यों न करवट बदलने से पहले ही इतना कमा लिया जाए कि बाद में अफसोस नहीं रहे।



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