रवीन्द्रनाथ टैगोर के सर्जन पर जब भी जाता हूं, लगता है साधारण के व्यतिक्रम हैं कविन्द्र। विश्वजनीन संस्कृति में पिरोई चित्रकला और संगीत की उनकी सर्जना में सौन्दर्य की जीवन अभिव्यक्ति की तलाश जैसे पूरी होती है। यह रवीन्द्र ही हैं जो कहते थे, ‘चित्र देह है एवं संगीत प्राण।’
शांतिनिकेतन परिसर में बांग्लादेश के कलाकारों द्वारा रवीन्द्रनाथ के सुप्रसिद्ध नृत्यनाटक "ताशेर देश" का मंचन किया गया। ताशेर बांग्ला शब्द है। "ताशेर देश" माने ताश का देश । ओपेरा से प्रभावित संगीत और नृत्य के अनूठे मेल की गुरूदेव की रचना का आस्वाद करते लगा वह जिस विश्वजनीन संस्कृति की बात करते थे, उसे अपने रचनाकर्म में गहरे से जीते भी थे।
"ताशेर देश" की कथा मर्मस्पर्शी है। किसी देश का राजकुमार भ्रमण करते हुए ऐसे स्थान पर पहुंच जाता है जहां सब कुछ नियमों से बंधा है। नियम-कानूनों की बेड़ियों में जकड़े लोगों से राजकुमार का संवाद होता है। राजकुमार की आजादी-प्रगति और सहजता की बातें सभी को लुभाती है। उस देश के राजा का फरमान है कि नियमों को तोड़ने वाले की बात न सुनी जाये। राजकुमार तब वहां की रानी साहिबा से बात करता है। रानी को स्वतंत्रता की बात सुहाती है। ताश के पतों की मानिंद वहां के निर्जीव जीवन में राजकुमार के आने से सजीवता का संचार होता है। हर ओर उल्लास और उमंग भी जैसे लौट आती है। उत्सवधर्मिता का गान होता है।
नृत्य-संगीत में एक के बाद एक प्रभावी दृष्यों और रवीन्द्ररचित बांग्ला का गीति कहन इतना सशक्त कि कब दो घंटे बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। भाषा भिन्नता के बावजूद कला के अपनेपन से सराबोर मन शांतिनिकेतन की शांति के सुकून में भी जैसे खो सा गया। कला और संगीत के क्षेत्र में आखिर क्रांति का श्रेय रवीन्द्र को यूं ही तो नहीं दिया जाता। शांतिनिकेतन से लौटे एक सप्ताह हो रहा है परन्तु "ताशेर देश" आंखों के सामने अभी भी घूम रहा है। नमन कर रहा है मन रवीन्द्र के तपःपूत जीवन को। संगीत और कला के उनके ज्ञान को। नमन रवीन्द्र। नमन!
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