Friday, November 30, 2012

इक्कीसवीं सदी में कला


कलाओं को हमारे यहां रूप की सृष्टि कहा गया है। वहां दृश्य का ही नहीं जो कुछ अदृश्य है, उसका भी अनुकरण करते रूप को उभारा जाता है। पार्कर ने इसीलिए कभी कला को इच्छा के काल्पनिक व्यक्तिकरण की संज्ञा दी थी। और अब तो कला कैनवस तक ही सीमित नहीं रह गयी है, उसके अभिव्यक्ति सरोकार भी बदल गए हैं।  किसी स्थान विशेष की संवाहक होने की बजाय वह बाजार जनित मूल्यों में संवेदना से परे बहुत से स्तरों पर जीवन से दूर भी हुए जा रही है। कैनवस हासिए पर है। रंग और रेखाओं की सर्जना में ब्रश-प्लेट गायब है। डिजिटल तकनीक के साथ संस्थापन में जो चाहे किया जाने लगा है। संभवतः इसी से कला-अकला का द्वन्द भी इधर तेजी से उभरा है।
राजस्थान हिन्दी गं्रथ अकादमी के पुस्तक पर्व में  ‘इक्कीसवीं सदी में कला का अंत’ सत्र शायद यही सोचकर रखा गया था। कला में उभरी नवीनतम प्रवृतियों के एक प्रकार से निश्कर्षनुमा इस षीर्शक विमर्श में प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज के साथ इस नाचीज से संवाद किया गया था। ‘कला के अंत’ पर भला कोई सहमत होगा? सो इस बाबत जब ममता चतुर्वेदी ने सवाल किया तो आनंद कुमार स्वामी के कहे पर ही गया, ‘नवीनता नवीन बनाने में नहीं नवीन होने में है।’ नवीन जो बनाया जा रहा है, उसमें कलाकार और हम स्वयं कितना नवीन होते हैं। असल मुद्दा यह है। यूं भी कला माने जिसका कलन होता हो। काल में जिसकी गणना की जा सके। काल से जुड़े का भी अंत हो सकता है! मुझे लगता है, यह कला ही तो है जो अपनी व्यापक सांस्कृतिक प्रतिक्रिया के तहत समाज में तमाम अपनी स्मृतियां, विस्मृतियां, विशेषताओं और बेशक खामियों के साथ हर दौर में मौजूद रहती है। इसलिए उसमें नवीनता जब-जब होती है, पुराने को न छोड़ पाने के मोह के कारण ऐसे सवाल भी उठते रहते हैं।
विनोद भारद्वाज ने इसीलिए ‘कला के अंत’ की बजाय कैनवस के अंत के प्रश्न को मौजूं बताते कहा कि सत्र का शीर्षक कुछ ऐसा ही होना चाहिए था। इसके बहाने उन्होंने बदलते समय में कलाकार के जीवन मूल्यों में आए बदलाव की ओर ईषारा किया। उनका कहना था, पहले कलाकार के पास कैनवस था तो समय था अब जब माध्यम बदल गया है तो बाजार भी प्रमुख हो गया है। कैनवस छूटने के साथ ही कलाकार के पास अब समय ही नहीं है। वह बाजार की दौड़ में इस कदर भाग रहा है कि अपने और अपनोें से ही दूर हुए जा रहा है। हुसैन की हर अदा मीडिया में साया होती तो गायतोण्डे और अम्बादास जैसे महत्वपूर्ण कलाकारों के अंत से भी मीडिया अनजान बना रहा। प्रयाग शुक्ल ने कला में आए बदलावों के साथ छीजती संवेदनाओं पर गहराई से रोशनी डाली।
बहरहाल, ‘इक्कीसवीं सदी में कला का अंत’ पर विमर्श के बहाने कला में उभरती नवीनतम प्रवृतियां और बाजार मूल्यों की गहरे से पड़ताल हुई। संवाद में इन पंक्तियों के लेखक ने टाईम मैगजीन में 1923 में प्रकाशित मशहूर कला आलोचक क्रिस्टल के उस लेख की भी याद दिलाई जिसमें कलाकारों के पागल हुए जाने की बात कही गयी थी। अप्रत्यक्षतः कला के अंत का ही प्रश्न उसमें उठाया गया था। माने हर दौर में जब भी कुछ नया होता है, लीक से हटकर कुछ किया जाता है तो उसमें इसी तरह के प्रश्न शायद उठते हैं। ‘कला के अंत’ की बात बहुत से लोगों को भले अखरी होगी परन्तु यह वह सांस्कृतिक प्रतिक्रिया है जिसमें बदलते रूप माध्यमों में कला नए आयाम ले रही है। बेशक आयाम के इस सफर में बहुत कुछ खराब भी हो रहा है परन्तु खराब की डर से क्या कला अभिव्यक्ति की बेहतरीन संभावनाओं को नकारा जा सकता है! 

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