सूक्ष्म अंतर्वृतियों के उद्घाटन का सबल माध्यम संगीत ही है। खाली ध्वनि भर नहीं है संगीत। आंतरिक भावों, अनुभूतियों को इसमें जब अभिव्यक्ति दी जाती है तो लगता है, प्रकृति गा रही है। मुझे लगता है, संगीत का विशुद्धतम रूप वाद्य है। वाद्यों का जन्म नैसर्गिक ध्वनियों के अनुकरण तथा अन्य चेष्टाओं के परिणामस्वरूप ही हुआ है। बांसुरी को ही लें। इसकी मीठी तान जब भी कानो मंे पड़ती है, लगता है प्रकृति माधुर्य का रस घोल रही है। प्रकृति वाद्य ही तो है बांसुरी। कहते हैं, कभी कीटों ने बांस के एक टूकड़े मंे छेद कर दिया। छेद में से होकर निकलने वाली हवा से जब मधुर ध्वनि निकली तो बांसुरी के निर्माण की पहल हुई।...ऐसा ही कुछ कहानी अन्य वाद्यों के साथ भी रही होगी परन्तु अभी तो बात मुरली की हो रही है। कन्हैया जिसे बजाते, उसी मुरली की।
पंडित रोनू मजूमदार की बांसूरी की तान सुनते लगा, वह अंतर के साथ बाहर के राग-अनुराग का अद्भुत मेल कराते हैं। मुरली में फूंक के जरिए वह जैसे नूतन की सृष्टि करते हैं। ‘म्यूजिक इन द पार्क’ में उन्हें सुनते लगा भांत-भांत के सुर संजोती उनकी बांसूरी गा रही है। बांसुरी में वह बढ़त करते हैं। बढ़त माने विस्तार। ढ़लती सांझ रात्रि की ओर बढ़ने लगी थी। मुरली की तान छेड़ने से पहले श्रोताओं से संवाद करते वह कहने लगे, ‘मन की शांति और अध्यात्म से जुड़ा है हमारा संगीत। मुरली प्रकृति वाद्य है। इसमें न तार है न चाभी। चलिए आपको सुनाता हूं,...पहले आलाप होगा।’
मुरली की तान छिड़ जाती है। खुले आसमान में दूर तक फैली हरियाली में सुरों की मिठास घोलती। राग के चरणबद्ध शास्त्रोक्त स्वरूप में रमने लगा मन। विलम्बित लय का आलाप। स्वरों की बढ़त। तार, अति तार, मन्द्र और मध्य सप्तकों में वह आलापों का माधुर्य विस्तार करते जैसे खुद भी उसमें खो से जाते हैं। आरंभ होता है, राग बागेश्वरी से। संगीत की चिर सम्पूर्णता में हृदयभावों की उनकी अभिव्यंजना सूक्ष्मातिसूक्ष्म परन्तु बंधनमुक्त सुरांे की निर्मिति करती जैसे ईश्वर से तादात्म्य की गुहार कर रही है। बांसूरी में पुकार। प्रार्थना की ध्वनि। सांसो से सधा भावों का मनोयोग। शांति, नीरवता और पवित्रता लिए। ध्वनि में मौन।...औचक जैसे पं. रोनू ने अपने होठों से लगी बांसूरी से शंख बजाया है। ठीक वैसे ही जैसे ईश़्ा आरती में बजता है शंख।
प्रभु! बांसुरी में शंखनाद। यह मोटी बांसुरी है। अति मन्द्र सप्तक में शंखनाद करती। ध्वनि के माधुर्य में पंडितजी अलग-अलग बांसुरियों से बढ़त करते हैं। लगता ऐसे है जैसे एक ही बांसुरी में वह सप्तकों को साध रहे हैं, ईश्वर को रिझाते। मनाते। शंखनाद के बाद मन्द्र और मध्य सप्तक के सुर। लम्बी तान। पुकार! आनंद विभोर करती बांसुरी। अनंत में विलीन होते सुर। तबला नहीं बज रहा परन्तु उसकी थाप है। तानपुरा नहीं परन्तु उसकी तान है।...मन को लुभाती बासुरी जैसे गा रही है। इस गान में आरोह है और अवरोह भी। मुझे लगता है, सधते सुरों में बांसुरी एक-एक कर दीप जला रही है। अंतर के दीप। एक...दूसरा...तीसरा और फिर अनेक दीपकों की रोशनी से जैसे नहा उठा माहौल। बांसुरी की पं. रोनू मजूमदार की तान जैसे आह्वान कर रही है, जल दीप। जल! हर ओर संगीत का उजास। मंद बहती पवन भी झुम कर तेजी से बहने लगी। सुरों का कारंवा भी परवान चढ़ने लगा।
तबले में सुधीर पाण्डे भी उनको गजब का साथ देते हैं। आलाप के साथ राग को उठाते वह मंड, मध्य और तार सप्तक का शनैःशनैः जब विस्तार करते हैं तो ताल भी पूरा साथ देती है। भुपताल, तीनताल में बंदिशें। आलाप। शास्त्रीय रागों के साथ सुफी संगीत, मांड, पहाड़ी लोकसंगीत और मीरां के भजनों के माधुर्य में वह तन और मन दोनों को ही अंदर तक भिगोते हैं। उन्हें सुनते मन नहीं भरता। मुझे लगता है, बांसुरी की तान में वह अपने ही रचे को तोड़ते हैं। हर बार। बार-बार। मधुर तान में फूंक को एक जगह रोक वह उसके टूकड़े करने लगते हैं। फूंक को तोड़ते, फिर से उसे जोड़ते हैं। अद्भुत रस की सृष्टि करते। सांसो को गजब साधते मुरली वादन की यही उनकी मौलिकता है।
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