सिनेमा का कला से सीधा ही नहीं बल्कि निकट का रिष्ता है। इसलिए कि दोनों ही एक दूसरे के लिए अनंत संभावनाओं के द्वार खोलते हैं और बेशक व्यावहारिक रूप में सामाजिक सरोकारों से जुड़े भी हैं। बहरहाल, कला की सभी विधाएं अंततः अपने माध्यमों से कोई न कोई कथा कहने का ही प्रयास करती है। मुझे लगता है कला के विभिन्न रूपों का पारस्परिक संतुलित समन्वय करना कला को एक प्रकार से अभिजात्य वर्ग की सीमाओं से बाहर निकाल उसे जन सामान्य तक पहुंचाने की प्रक्रिया ही है और फिल्म में इसकी सर्वाधिक संभावनाएं हैं। पिछले दिनों जयपुर के नमन गोयल की बनायी ‘एन अफेयर विद न्यूयॉर्क’ देखते इसे जैसे और गहरे से अनुभूत किया। नमन न्यूयॉर्क फिल्म एकेडमी में फिल्म निर्माण और निर्देषन की बारीकियां सीख रहा है। यहां रहते उसने अपने वतन के संस्कारों की स्मृतियों में न्यूयॉर्क की जीवन शैली, संस्कृति को फिल्म में जैसे गूंथ दिया है। दैनंदिन जीवन की साधारण घटनाओं से विषेष उद्दीपन में मन और दैहिक संबंधों के साथ संस्कारों से मुक्ति के घटनाक्रमों में तेजी से बदलते फिल्म के दृष्य घनीभूत नाटकीय रूप धारण कर देखने वाले को आंदोलित करते हैं। रचनात्मक अर्थों में कहानी के बिखरे कोलाज की एक बड़ी विषेषता यह भी है कि इसमें कमेन्ट्री, परस्पर संवाद और सब टाईटल्स की मदद से कथा के बड़े सूत्रों को अल्पअवधि में सहज संप्रेष्य किया गया है। खुद के संस्कारों के बरक्स अपने तई सामाजिकि संहिताओं का एक प्रकार से विरेचन करते नमन ने फिल्म में यथार्थ के विकृत को ट्रिटमेंट में कला की सौन्दर्यानुभूति भी दी है। स्क्रिन पर ताजमहल, खजूराहों की मूर्तियों के बहाने न्यूयार्क और भारतीय दर्शन की गहराईयों को भी जिया गया है। यथार्थ जीवन के कटू सत्यों के साथ उनके संघर्ष में नमन ने अपनी फिल्म में संस्कृतियांे के अंतर्द्वन्द को सैलुलाइड पर जैसे पुनर्सृजित किया है। नमन ने इससे पहले ‘अदर देन राइट ऑर रोंग’, ‘सस्पेक्ट लिस्ट’, बिगनिंग टू गेट बाल्ड’ जैसी लघु फिल्में भी बनायी है। कथ्य की मौलिकता और भाव बोध को अधिकाधिक सुगम करती उसकी बनायी फिल्में मन और मस्तिष्क को झंकृत करती कुछ सोचने को विवष करती है। मुझे लगता है, वास्तविकता की पुनर्रचना की सिनेमा की आभासी क्षमता ही उसके कला सरोकारों को और अधिक प्रमाणित करती है।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक ५-३-१०
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