Friday, March 26, 2010
माध्यम का हूबहू रूपान्तरण
बहरहाल, किसी कलाकृति के लिए छायाचित्र सहयोगी बने तो इसे स्वीकारा जा सकता है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि कला का रूप एक हो जाए। ऐसा यदि होता है तो फिर कला की अपनी निजता कैसे रहेगी। दूसरी कला से आप विषय ले सकते हैं, फॉर्म का कुछ हिस्सा इस्तेमाल कर सकते हैं परन्तु पूरा का पूरा उसे ही आप यदि अपनाते हैं तो फिर वह कला कहां रहेगी!
पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र की सुरेख कला दीर्घा में जयगढ़, नाहरगढ़, गढ़ गणेष, जन्तर-मन्तर, आमेर दुर्ग आदि की खेतान्ची की पेंटिग देखते हुए लगा कैनवस पर छायाचित्रों को रूपान्तरित कर दिया गया है। उनके तेलचित्रों में कला की मौलिक अभिव्यंजना की बजाय छायाचित्रकारी का ही आस्वाद हर ओर हर छोर नजर आ रहा था। किलों के भीतर के गलियारों के छाया-प्रकाष प्रभाव, उग आयी घास और ऐसे ही बहुतेरे दूसरे दृष्य ऐसे हैं जिनहें अनुभूति चाह कर भी संचित नहीं कर सकती। खेतान्ची ने इन्हें अपनी पेंटिंग में संचित किया है। जाहिर सी बात है, कैमरे का इस्तेमाल उन्होंने अपनी इन पेंटिंग मे अनुकरण की हद तक किया है। सवाल यह है कि क्या इन्हंे फिर कलाकृतियां कहा जाएगा? कलाकार पर दूसरी कला का प्रभाव हो सकता है। अमृता शेरगिल, गुलाम मोहम्मद शेख, विकास भट्टाचार्य, गीव पटेल, भूपेन खक्खर, शांतनु भट्टाचार्य आदि की कलाकृतियों में फोटोग्राफी का प्रभाव जरूर दिखायी देता है परन्तु उन्हें छायाचित्रों का अनुकरण नहीं कहा जा सकता। बहुतेरी बार अचेतन भी ऐसा होता है परन्तु खेतान्ची ने तो पेंटिंग को ही छायाचित्र बना दिया है। हूबहू आप यदि दूसरे माध्यम को अपने माध्यम में रूपान्तरित करते हैं तो फिर इसमें नया क्या हुआ?
बहरहाल, ऐसे दौर में जब कैमरानुमी सक्षम यंत्र बेहद विकसित हो गया है और नंगी आंख से न देख सकने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्य को भी वह चित्र में परिवर्तित कर देता है, क्या पेंटिग का प्रयोजन भी यही होना चाहिए! पॉल देलारोष फिर से याद आ रहे है, ‘क्या चित्रकला मर गयी है?’
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" २६-३-२०१०
Friday, March 19, 2010
कलाओं का अन्तर्सम्बन्ध
बहरहाल, यह जब लिख रहा हूं, जतिनदास का एक चित्र जेहन में कौंध रहा है। नृत्य की भाव भंगिमाओं में यह चित्र ऐसा है जिसमें कला की सम्पूर्णता को अनुभूत किया जा सकता है। इसमें चित्रात्मकता तो है ही, सांगीतिक आस्वाद है, नाट्य का भ्व है, कविता का छन्द है और कला की तमाम अनुभूतियों भी यहां सघन महसूस की जा सकती है। कहा जा सकता है कि सभी कलाएं एक दूसरे से मिली हुई है। एक दूसरे के बिना उनका काम नहीं चल सकता। संवाद और सहकार के जरिए कलाओं के परस्पर संबंधों को और अधिक सघन किया जा सकता है। अब जबकि बाजारवाद ने लगभग सभी कलाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और हर कला अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने में लगी है, क्या यह जरूरी नहीं है कि कलाओं के अन्तर्सम्बधों पर विचार करते हम उन्हें एक दूसरे के नजदीक लाए। यदि ऐसा नहीं होता है तो क्या अपनी श्रेष्ठता की होड़ में एक कला का दूसरी कला से संवादहीनता और सहकारहीनता से उनके मूल अस्तित्व से संघर्ष की चुनौती ही क्या हम पैदा नहीं कर रहे?
‘‘डेली न्यूज’’ में प्रति शुक्रवार को प्रकशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ ‘‘कला तट’’ दिनांक 19।3।2010
Monday, March 15, 2010
सच करो रेत के सपने
मौन में
संजोए हैं मैंने
रेत के सपने
पाल ली है मछलियां
मरूथल की मृगमरिचिका में
तुम-
सांस बन जीवन दो
मेरी मछलियों को
सच करो
रेत के सपनों को
मझदार भी किनारा बने
मेरी सोच का
खोलो, खोलो
तुम्हारे होने के सच का
अनावृत घेरा।
Thursday, March 11, 2010
स्मृतियों के दृष्यालेख
सैयद हैदर रज़ा के चित्र स्मृतियों के दृष्यालेख हैं। ऐसे जिन्हें आप देखकर सुकून पा सकते हैं, पढ़ सकते हैं और हां, यदि घूंट घूंट आस्वाद लंेगे तो अर्से तक आप उन्हें भुला भी नहीं पाएंगे। वे आपकी स्मृतियों को झंकृत करते रहेंगे। रजा दअरसल चित्रों से देखने वाले का रागात्मक संबंध स्थापित कराते हैं। बेषक, चित्रों में उभरी स्मृतियां उनकी वैयक्तिक हैं, उनके अपने संदर्भ है परन्तु वे देखने वाले की अंतर्मन भाव सत्ताओं को गहरे से छूती है। ड्राइंग के अंतर्गत रेखाओं का उनका सहज लयात्मक संतुलन और कोमलता हर देखने वाले को आत्मीयता का बोध कराती है। उनके चित्रों में जिस प्रकार की सफाई, रंग स्पर्ष से झलकने वाली कोमलता नजर आती है, वह अमूर्तन में इधर न के बराबर दिखायी देती है। यह रजा की कला के गंभीर आत्मसयंम की ही परिणति है, जिसमें वे कैनवस पर अनुभूति और संवेदनाओं के अपने आत्मकथ्य की खोज बाहर की ओर नहीं करके भीतर की ओर करते हैं, देखने वालों को करवाते हैं।बहरहाल, रज़ा के चित्रों पर पहले भी लिखा है, परन्तु इस बार जब जवाहर कला केन्द्र में लगे उनके चित्रों की प्रदर्षनी देखी तो लगा वे इस उम्र भी में भी निंरतर कला की बढ़त की ओर ही उन्मुख है। रंगों का तो वे अद्भुत लोक रचते हैं। रंग उनके चित्रांे का माहौल बनाते हैं। भावों के उद्वेग में रंग एक निर्मम तटस्थता भी प्रदान करते हैं। आंतरिक तन्मयता और आग्रहषीलता से रजा अपनी ऐन्द्रिकता को कैनवस पर रूपायित करते जैसे दृष्यों को लेख बंचवाते हैं। प्रकृति और जीवन के रहस्यों को कैनवस की भाषा में परोटते उनके चित्र अभिप्राय बहुत अधिक चर्चित भले नहीं हो परन्तु बौद्धिक आडम्बर उनमें नहीं है। मसलन पंचभुत तत्व का उनका चित्र ही लें या फिर बिन्दू के उनके चित्र या फिर उनके रेखांकन-सभी में ज्यामितिक आकारों के उभरते बिम्ब और प्रतीक अदम्य ऊर्जा लिए हैं। उनके चित्रों की बड़ी विषेषता यह भी है कि वे पावन शंांति का अहसास कराते हैं। ऐसे दौर में जब रंग और रेखाएं कैनवस में कला की सघनता की बजाय बाजार की संभावनाओं की दस्तक देती हों, यह बेहद महत्वपूर्ण है कि रजा के चित्र कला के सच से हमंे रू-ब-रू कराते आषय की अर्थवत्ता की तलाष कराते हैं। उनके बरते रंग मन में उत्सवधर्मिता का जैसे आगाज करते हैं। कोलकाता की आकार-प्रकार आर्ट गैलरी के जरिए प्रदर्षित उनके चित्र हाल ही बनाए हैं और वे सभी ‘लिरिकल’ हैं, हॉं, कुछ में जबरदस्त दोहराव भी है परन्तु समग्रता में उनके चित्रों के रंग और रूपाकार एक अतीन्द्रिय सत्ता के संवाहक बनते, सूक्ष्म बौद्धिक संवेदनाओं का सांगीतिक आस्वाद लगभग सभी स्तरों पर कराते हैं।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक १२-३-१०
स्मृतियों के दृष्यालेख
सैयद हैदर रज़ा के चित्र स्मृतियों के दृष्यालेख हैं। ऐसे जिन्हें आप देखकर सुकून पा सकते हैं, पढ़ सकते हैं और हां, यदि घूंट घूंट आस्वाद लंेगे तो अर्से तक आप उन्हें भुला भी नहीं पाएंगे। वे आपकी स्मृतियों को झंकृत करते रहेंगे। रजा दअरसल चित्रों से देखने वाले का रागात्मक संबंध स्थापित कराते हैं। बेषक, चित्रों में उभरी स्मृतियां उनकी वैयक्तिक हैं, उनके अपने संदर्भ है परन्तु वे देखने वाले की अंतर्मन भाव सत्ताओं को गहरे से छूती है। ड्राइंग के अंतर्गत रेखाओं का उनका सहज लयात्मक संतुलन और कोमलता हर देखने वाले को आत्मीयता का बोध कराती है। उनके चित्रों में जिस प्रकार की सफाई, रंग स्पर्ष से झलकने वाली कोमलता नजर आती है, वह अमूर्तन में इधर न के बराबर दिखायी देती है। यह रजा की कला के गंभीर आत्मसयंम की ही परिणति है, जिसमें वे कैनवस पर अनुभूति और संवेदनाओं के अपने आत्मकथ्य की खोज बाहर की ओर नहीं करके भीतर की ओर करते हैं, देखने वालों को करवाते हैं।बहरहाल, रज़ा के चित्रों पर पहले भी लिखा है, परन्तु इस बार जब जवाहर कला केन्द्र में लगे उनके चित्रों की प्रदर्षनी देखी तो लगा वे इस उम्र भी में भी निंरतर कला की बढ़त की ओर ही उन्मुख है। रंगों का तो वे अद्भुत लोक रचते हैं। रंग उनके चित्रांे का माहौल बनाते हैं। भावों के उद्वेग में रंग एक निर्मम तटस्थता भी प्रदान करते हैं। आंतरिक तन्मयता और आग्रहषीलता से रजा अपनी ऐन्द्रिकता को कैनवस पर रूपायित करते जैसे दृष्यों को लेख बंचवाते हैं। प्रकृति और जीवन के रहस्यों को कैनवस की भाषा में परोटते उनके चित्र अभिप्राय बहुत अधिक चर्चित भले नहीं हो परन्तु बौद्धिक आडम्बर उनमें नहीं है। मसलन पंचभुत तत्व का उनका चित्र ही लें या फिर बिन्दू के उनके चित्र या फिर उनके रेखांकन-सभी में ज्यामितिक आकारों के उभरते बिम्ब और प्रतीक अदम्य ऊर्जा लिए हैं। उनके चित्रों की बड़ी विषेषता यह भी है कि वे पावन शंांति का अहसास कराते हैं। ऐसे दौर में जब रंग और रेखाएं कैनवस में कला की सघनता की बजाय बाजार की संभावनाओं की दस्तक देती हों, यह बेहद महत्वपूर्ण है कि रजा के चित्र कला के सच से हमंे रू-ब-रू कराते आषय की अर्थवत्ता की तलाष कराते हैं। उनके बरते रंग मन में उत्सवधर्मिता का जैसे आगाज करते हैं। कोलकाता की आकार-प्रकार आर्ट गैलरी के जरिए प्रदर्षित उनके चित्र हाल ही बनाए हैं और वे सभी ‘लिरिकल’ हैं, हॉं, कुछ में जबरदस्त दोहराव भी है परन्तु समग्रता में उनके चित्रों के रंग और रूपाकार एक अतीन्द्रिय सत्ता के संवाहक बनते, सूक्ष्म बौद्धिक संवेदनाओं का सांगीतिक आस्वाद लगभग सभी स्तरों पर कराते हैं।
Sunday, March 7, 2010
पाषाण सौन्दर्य और सुरम्य झील...
यात्रा डायरी
‘बीकानेर में सुरम्य झील!॥ हिल स्टेषन जैसे दृष्य!’‘क्यों? विष्वास नहीं हो रहा?...’‘तुम कह रहे हो तो मान लेता हूं।...अच्छा कब ले जा रहे हो वहां?’‘तुम तो कल जा रहे हो नहीं तो कल ही ले चलता।’‘मेरा जाना कैंसिल...आज ही टिकट रद्द करवा देता हूं। मैं कल तुम्हारे साथ अब गजनेर चलूंगा।’ कोलकता से आए मित्र इन्द्र ने सच में गजनेर के लिए अपनी यात्रा स्थगित कर दी थी। उसे गजनेर की इतनी उतावली हो रही थी कि रात को वह ठीक से सो भी नहीं पाया। वह बीकानेर में तब इन्टनेषनल कैमल फेस्टिवल में भाग लेने वह आया था। तय यह हुआ कि इन्द्र के साथ मोटरसाईकिल पर ही गजनेर जाया जाए। दिन में सूबह 9 बजे ही हम लोग मोटर साईकल पर रवाना हो गए थे। बीकानेर से कोई 30 किलोमीटर दूर स्थित गांव गजनेर के लिए। मोटर साईकिल में हवाओं के सर्द झोंकों का अहसास लेते हम बीकानेर शहर के अंतिम छोर स्थित मुरलीधर व्यास कॉलोनी को क्रॉस करके रेलवे फाटक के पास पहुंच गए थे। सामने छोटा सा बोर्ड लगा हुआ था, ‘नाल बड़ी।’ इन्द्र अपने आपको रोक नहीं पाया, बोला, ‘अरे! ये क्या नाम है?’ ‘इसमें अचरज क्यों हो रहा है, गांव का नाम है भाई।’ ‘अजीब नाम है।’ ‘यह जानकर और भी अजीब लगेगा कि भारतीय सेना के मिग ट्वन्टीवनों का बड़ा कारवां यहीं से गुजरता है। भारतीय सेना का बड़ा हवाई अड्डा है यहां।’ ‘अच्छा। तब तो पहले हम वहीं चलते हैं।’ ‘वहां प्रवेष निषेध है।’ ‘ओह!’ मोटर साईकिल 50 की स्पीड में आगे बढ़ रही थी। रास्ते में सड़क के किनारे किंकर के पेड़ और उड़ती रेत के अलावा दूर तक नजर दौड़ाएं तो सपाट रेत के मैदान, कुछ अन्तराल पर रेत के धोरों के अलावा उजाड़ ही उजाड़ था। मरूस्थल में विरानगी के इन नजारों में गजनेर के जिस सौन्दर्य का मैंने बखान किया था, उसको लेकर उसे अभी भी संदेह था। कोई एक घंटे में हम गजनेर पहुंच गए। मरूस्थल के गांव जैसा गांव। सामने एक छोटा सा तालाब। गंदा, मटमेला पानी। कुछ गायें और भैंसे उस पानी में नहा रही थी तो कुछ औरतें दूसरे किनारे से उसी पानी को पीने के लिए मटकों में भर रही थी। आस-पास किंकर के अलावा कुछ नहीं। ‘यह है झील!...इसमें क्या नया है।...तुम तो कह रहे थे बहुत खूबसूरत स्थान ले जा रहा हूं। यहां क्या खास है? यह तालाब (गजनेर झील) और और गांवो जैसा गांव! क्या यही है तुम्हारा खूबसूरत गजनेर।’‘अभी तुमने देखा ही क्या है? आओ आगे चलते हैं।’कहते हुए मैं मोटर साईकिल को अंदर संकरे रास्ते की ओर घुमा ले जाता हूं। किल,े महलों की शानदार विरासत की कड़ी के नायाब नमूने गजनेर पैलेस के प्रवेष द्वार तक पहुंचते-पहुंचते दृष्य जैसे परिवर्तित होने लगते हैं। मैं इन्द्र की ओर देखता हूं। उसे भी हैरानी है। चहुं ओर हरियाली। रेत के टिले। पत्थरों का सौन्दर्य और...यह विषाल प्रवेष द्वार। हम दुलमेरा के लाल पत्थरों से निर्मित राजस्थान के शानदार महल गजनेर पैलेस में है। मोर अपनी मीठी आवाज में जैसे स्वागत कर रहे हैं। मरूस्थल में विषाल पेड़। उन पर चहचहाते पक्षी। ठंडी हवाएं अवर्णनीय शांति का अहसास करा रही है।‘खमाघणी हुकूम। म्हूं आपरी काईं खिदमत कर सकूं हू।’पारम्परिक पगड़ी और वेषभुषा में बड़ी-बड़ी मूंछो में सहज मुस्कान के साथ चौड़ी कद काठी का रोब वाला एक व्यक्ति झुक कर स्वागत करते हुए जब यह कहता है तो राजस्थान की संस्कृति जैसे मेरे पर्यटक मित्र की आंखों के सामने साकार हो उठती है। इन्द्र गजनेर पैलेस के अप्रतिम सौन्दर्य को ही निहारने मंे लगा है। लाल पत्थरों से निर्मित प्रकृति की गोद में बसे पैलेस के आस-पास के क्षेत्र को देखकर भी उसे घोर अचरज हो रहा है। मैं उसे बताता हूं, ‘अब यह हैरिटेज होटल है। कभी बीकानेर के पूर्व महाराजा गजसिंह ने विक्रम संवत् 1803 में यह गांव बसाया था।’ एचआरएच ग्रूप के हेरिटेज होटल का मैनेजर पूर्व परिचित है, उसे दूरभाष पर सूचित कर दिया था इसलिए वह हमारा इन्तजार ही कर रहा था।’ इन्द्र पैलेस की हरियाली को देखकर हैरत में है। सामने पैलेस से सटी झील का नजारा देखकर तो चौंक ही पड़ता है। उसे विष्वास नहीं हो रहा, गांव में ऐसा दृष्य दिखायी देगा। एक छोटी सी बोट तैर रही है पानी में। साफ पानी। थोड़े थोड़े अन्तराल में पैलेस के पत्थरों से टकराकर मधुर ध्वनित करता मन को जैसे आंदोलित कर रहा है। ‘तुम्हें यहां सब जानते हैं!’‘हां, जब भी बीकानेर आता हूं। यहां आता ही हूं। बचपन से ही आता रहा हूं। तब यह हैरिटेज होटल नहीं था। मित्रों के साथ पिकनिक मनाने का यही गंतव्य था।’‘सच में, मन करता है, यहीं बस जाऊं।’‘हैरिटेज वाले लूट लेंगे, सोच लो।’ मैं जब यह कहता हूं तो इन्द्र जोर से हंस पड़ता है। सुन्दरता को होटल वालों ने ही सहेज लिया है...नहीं तो यहां भी उजाड़ होता। कितने किले, महल ऐसे ही तो उजाड़ होते चले गए हैं।...सोचते हुए ही मैं इन्द्र के साथ झील के किनारे टहल रहा हूं। हैरिटेज होटल मैनेजर मल्होत्रा हमारे पास आकर चाय की मनुहार करता है। हम ना नहीं करते। वह इसके लिए आदेष दे देता है, फिर इन्द्र की ओर देखते हुए बताने लगता है, ‘यह जो झील आप देख रहे है, उसके जल ग्रहण हेतु बीकानेर के महाराजा ने कभी ब्रिटिश इंजीनियरों को बुलाया था। ब्रिटिष इंजीनियरों ने इस तकनीक से इस कृत्रिम झील का निर्माण किया कि गांव के किसी भी कोने से इस झील को देखें, आपको यह वैसी दिखायी नहीं देगी जैसी गजनेर के शानदार पैलेस से दिखायी देती है।’‘तो क्या यह वही झील है जो गांव में आते ही हमने देखी थी?’‘हां, यही झील गजनेर गांव में आगे चलकर तालाब का रूप ले लेती है। वहां उस तालाब में नहाने वाला कोई सोच नहीं सकता कि वह गजनेर पैलेस की शानदार झील के एक हिस्से में नहा रहा है। दरअसल पैलेस में रहने वालों और आने वाले मेहमानों के लिए इस मनोरम झील में जल प्रबंधन की व्यवस्था कुछ इस तरह से की हुई है कि भले ही गांव के तालाब का पानी सूख जाए परन्तु पैलेस की झील कभी नहीं सूखती। सदा भरी रहती है यह झील। यही नहीं झील में जीव-जन्तु भी हैं और प्रति वर्ष यहां विदेषी प्रजातियों के पक्षी भी विचरण करने लाखों मिलों की दूरियां तय कर आते हैं। प्रति वर्ष यहां इम्पीरियन ग्राण्डस विदेशी पक्षी भी आते हैं। झील में आठ ‘वाटर चैनेल्स’ एवं स्थान-स्थान पर ‘रूल्स गेट’ और बांध आदि बने हुए है।’...हम गजनेर झील के सौन्दर्य में ही खोए हुए हैं।...अरे! दूर वह पक्षियों का जोड़ा भी झील में सूस्ता रहा है।...रमणिक। जल महल से झील का ऐसा दृष्य। सोचकर ही अचरज होता है। रेगिस्तान में अद्भुत है झील का ऐसा सुहावना दृष्य। सच! गजनेर के ऐतिहासिक पैलेस में चार चांद लगाती है यह कृत्रिम झील। लाल पत्थरों से निर्मित गजनेर के ऐतिहासिक पैलेस का महत्व इसलिए भी है कि इसमें प्राचीन और आधुनिक शैली की स्थापत्य कला का सांगोपांग मेल है। गजनेर पैलेस आजादी के बाद वर्षों तक उपेक्षित पड़ा रहा।...1994 में उदयपुर के महाराणा और हिस्टोरिक रिसोर्ट एंड होटल्स यानी एचआरएच ग्रूप के अध्यक्ष अरविंद सिंह मेवाड़ ने इसे होटल में परिवर्तित करते इसके जिर्णोद्धार का बीड़ा उठाने की पहल की।...अब इस हेरिटेज होटल के महल सूइट बन गए हैं। पश्चिमी शैली में स्थानीयता का पुट लिए इस ऐतिहासिक पैलेस की स्थापत्य कला, शिल्पकला इतनी भव्य है कि मन करता है इसे निहारते रहें। बस जाएं यहीं। यहां के डूंगर निवास, मंदिर चौक, गुलाब निवास ओर चंपा निवास में लाल पत्थरों का स्थापत्य सौन्दर्य अवर्णनीय है। पैलेस में महाराजा गजसिंह द्वारा बनाए सभी महल एक से बढ़कर एक हैं। यहीं एक सुन्दर कालीन भी है। इन्द्र सहज प्रष्न करता है, किसने बनायी?...’पता चलता है, बीकानेर के केन्द्रीय कारागृह में कैदियों द्वारा निर्मित है यह कालीन। महल के किसी भी कोने से इस कालीन को देखें। आपको हर कोने से यह अलग रंग में दिखायी देगा। है, न आष्चर्यजनक। गलीचे की बुनाई इतनी शानदार कि इसके बारे में हमारे पास कुछ कहने को शब्द कम पड़ रहे हैं।गजनेर पैलेस में ही हम लंच लेते हैं।...कुछ पल सुस्ताकर वहीं आस-पास घूम लेते हैं।...पूरा दिन गजनेर पैलेस में ही बिताते हैं।...पाषाण सौन्दर्य में रेगिस्तानी की सुन्दरता और ढ़ेरों बाते...पता ही नहीं चलता दिन बीत जाता है। ...सांझ गहरा रही है। पैलेस की छतों पर रियासत काल में बने कांच के झुमरों में बल्ब की रोषनी बेहद भली-भली लग रही है। इस रोषनी में डीनर का आनंद लेते प्रकृति के इस सुरम्य स्थल पर पसरी रेत की शांति मन में जो अहसास करा रही है, उसे बंया नहीं किया जा सकता। अपने पर्यटक मित्र के साथ गजनेर पैलेस से लौटे इतने दिन हो गए परन्तु अभी भी पैलेस के जल महल के किनारों से टकराते झील के पानी की मधुर आवाज कानों में प्रकृति के अद्भुत दृष्य की अनुभूति कराती जैसे हमे फिर से बुला रही है ‘पधारो म्हारे देस’...।
डेली न्यूज़ के रविवारीय "हम लोग" में प्रकाशित, दिनांक ७-३-१०
Thursday, March 4, 2010
संस्कृति के अंतर्द्वन्द की पुनर्रचना
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक ५-३-१०