Friday, May 11, 2012

कलाओं पर संवाद की राह खुले



रवीन्द्र जन्मषती वर्ष के अंतिम दौर में रवीन्द्रमंच सोसायटी और नाट्यकुलम ने जयपुर में रवीन्द्र प्रणति समारोह कर कलाओं पर चिंतन को जैसे नया आकाष दिया है। कहें, कविन्द्र रवीन्द्र की कलाओं की प्रस्तुति के साथ ही उन पर संवाद की यह सार्थक पहल थी। रवीन्द्रनाथ टैगौर की जन्मषती पर देषभर में आयोजन हुए। उनके कलाओं की प्रस्तुतियां हुई परन्तु उनकी कला दृष्टि पर चिंतन की नई राह कहीं खुलती नजर नहीं आयी। कह सकते हैं, इस दृष्टि से प्रणति समारोह आष जगाता नजर आया। 
टैगोर सम्पूर्ण कलापुरूष रहे हैं। उन्होंने कविताएं लिखी, नाटक लिखे, स्वयं अभिनय किया, रवीन्द्र संगीत रचा और तो और उम्र के उत्तरार्द्ध में चित्र भी बनाए। माने उनके पास भरपूर कला दीठ थी।  उनके लिखे नाटकों, चित्रों, संगीत में इस दीठ को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है परन्तु यह विडम्बना ही कहें कि उनकी कला दृष्टि पर जिस गहराई से चिंतन और विमर्ष होना चाहिए, वह नहीं हुआ। हां, उनके साहित्य पर फिर भी कहने लायक कार्य हुआ है परन्तु उनका कलाकर्म आलोचकीय दृष्टि से बहुत से स्तरों पर अछूता ही रहा है।
बहरहाल, प्रणति समारोह में रवीन्द्र मंच पर टैगोर की कला दीठ पर बोलते हुए खाकसार ने यह प्रस्तावित किया कि उनके चित्रों की एक प्रदर्षनी और उस पर संवाद की शुरूआत हो। यह भी कि उनके संगीत की प्रस्तुति के साथ ही उस पर अधुनातन सोच से चिंतन का भी अलग से अवकाष निकले। कला मर्मज्ञ मुकुन्द लाठ ने टैगौर के काव्य और संगीत के संतुलन की गहरे से विवेचना की। उनके इस कहे के आलोक में क्यों नहीं रवीन्द्र संगीत पर पर गहरे से मंथन की कोई राह निकाली जाए। रवीन्द्र मंच सोसायटी की प्रबंधक नीतू राजेष्वर कलाओं की गहरी समझ लिये उत्साही अधिकारी हैं। सोचता हूं, सरकार में कला-संस्कृति महकमे में ऐसे ही अधिकारी हों तो बात बन सकती है। मुझे लगता है, कला संसार की बड़ी विडम्बना यही है वहां संवाद नगण्य है। माने कला प्र्रस्तुतियां तो तमाम स्तरों पर हो रही है परन्तु कलाओं में निहित पर संवाद की परम्परा जैसे समाप्त सी होती जा रही है। संवाद हो भी रहा है तो वह अकादमिक ढर्रे में इस कदर बोझिल है कि उससे कलाओं के प्रति नई पीढ़ी में रूझान पैदा होगा, इसमें संदेह है।
रवीन्द्र नाथ टैगौर के कलाकर्म पर विचारते मन में आ रहा है, इस छोटे से जीवन में कितना कुछ उन्होंने किया।  हम जो हैं, उनके किये के बहाने ही कलाओं में कुछ नहीं करते।  अव्वल तो कलाओं पर आयोजन ही नहीं होते और जो होते है वह विष्वविद्यालयों, षिक्षण संस्थाओं या फिर अकादमियों के बजट संपूर्ति की औपचारिकता लिये होते हैं। वहां जो लोग बोलते हैं, वे परम्परा का ढोल बजाते हुए वही कुछ दोहराते हैं जो पाठ्यपुस्तकों में है या फिर दूसरे स्थानों पर उपलब्ध है। जो कुछ पहले से रचा है, जिस पर पहले से आलोचकीय दृष्टि उपलब्ध है, उसे आखिर कितनी बार हम प्रस्तुत करेंगे। रवीन्द्र ने 67 वें वर्ष में चित्रकला की शुरूआत की। इसलिये कि उन्हें लगा, जो उनका काव्य नहीं कर पा रहा है, जो उनका संगीत नहीं कर पा रहा है-हो सकता है वह चित्रकला कर जाए। नयेपन की इसी छटपटाहट से कलाएं संस्कारित होती है। अप्रकट का प्रगटन, अप्रत्यक्ष का दर्षन यही तो है। रवीन्द्र की तो तमाम कला दृष्टि यही है। रवीन्द्र संगीत में पारम्परिक राग-रागिनियां है परन्तु श्रवण में आनंद के अवरोधों की जकड़न नहीं है। स्वरानंद के साथ भावों का रस वहां है। बंधनों में निर्बन्ध। ऐसा ही उनके चित्रकर्म के साथ है। वहां दृष्य का पठन है। रेखाओं का उजास है और परम्परा की बजाय अव्यक्त का वह व्यक्त है जिसमें दृष्य हमारे जाने-पहचाने हैं परन्तु उनका संसार सर्वथा अलग है। ऐसा जिसे देखते हम स्वयं ही पुनर्नवा होते हैं। जो कुछ यथार्थ है, उसे हूबहू या फिर उसका आभास कराने का कार्य तो जादू भी कर सकता है, उसमें कला कहां है? इसीलिये कहें, रवीन्द्र ने जादू नहीं कला के गहन संस्कार हमें दिये हैं। इन संस्कारों के आलोक में ही उनकी कला दृष्टि पर आईए फिर से विचारें!

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