प्रेमचन्द गोस्वामी रंग और और रेखाओं की उत्सधर्मी संस्कृति के संवाहक थे। संवदनाओं का स्पन्दन कराता उनका कैनवस अनुभूतियों का जैसे गान करता। तुलिकाघातों से रंगों का वह जो राग सुनाते उसमें रचने-बसने का हर किसी का मन करता। कहें वह मानव मन संवेदनाओं, प्रवृतियों, ंिचंतन को रंग,रेखाकाष देने वाले अद्भुत कला साधक थे। ऐसे जिन्होंने अमूर्तन में परम्परा का रस घोलते भारतीय संस्कृति की उत्सवप्रियता की हमारी संस्कृति का नाद किया। किसी एक षैली सें बंधे रहने की बजाय तमाम कला षैलियों से सरोकार रखते यह प्रेमचन्दजी ही थे जिन्होंने रंग, रेखाओं के गतिषील प्रवाह में उनकी कोमलता के छन्द को कभी मुर्झाने न दिया।
याद पड़ता है, माउन्ट आबू में कोई चार-पांच साल पहले ललित कला अकादेमी ने राज्य स्तरीय कला षिविर का आयोजन किया था। कला समीक्षक के रूप में खाकसार भी इसमंे सम्मिलित हुआ था। तभी चार-पांच दिन लगातार प्रेमचन्दजी का साथ मिला था। षिविर में अपनी ही धुन में उन्हें काम करते देखा। कैनवस पर रेखांकन के बाद ब्लेडनुमा लोहे की पत्ती से फलक पर वह रंग फैला रहे थे। हरे, पीले, नीले, लाल, काले में सफेद रंग को मिलाते वह रंगों का जैसे अद्भुत कोलाज रच रहे थे। मैं देख रहा था, रंगों के उनके निभाव में सर्वथा नयापन था। यह ऐसा था जिसमें स्ट्रोक दर स्ट्रोक रंग अपनी चमक में अद्भुत लय अंवेर रहे थे। कैनवस उत्सवधर्मी रंगों से सज रहा था। रंग नहीं रंगों का कोलाज। हरेक रंग का अपना अनुषासन। एक साथ बहुत सारे रंगों की उपस्थिति परन्तु कहीं कोई कोलाहल नहीं। निरवता। चटक रंग परन्तु सौम्यता हर ओर, हर छोर। रंग रागात्मकता। ब्लेडनुमा पत्ती से वह कैनवस पर कभी रंग छितराते तो कभी बिखराते। बहुत देर से उनके कैनवस पर ही नजर ठहरी थी परन्तु उन्हें जैसे मेरी उपस्थिति का भान ही नहीं था। शायद इसलिये कि रंगों की अपनी दुनिया में ही वह पूरी तरह से खोये हुए थे।
कैनवस के प्रेमचन्दजी के यही वह सरोकार थे जो उन्हें ओरों से जुदा करते थे। बाद में तो उनके कलाकर्म का गहरे से साक्षात् किया। मुझे लगता है, राजस्थान के वह एक मात्र ऐसे कलाकार थे जिन्होंने रंग और रेखाओं के होनेपर का गहन अन्वेषण करते अपने तई उन्हें सर्वथा नये अंदाज में परोटा। मसलन रंगो को मन के स्पन्दन से जोड़ती उनकी रंगोत्सव श्रृंखला को ही लें। कैनवस का उत्सवधर्मी गान वहां सुनाई देगा तो उनकी ज्यामितीय संरचनाओं में अद्भुत उड़ान है। आकाष मंे उड़ते पंछियों की मानिंद। ऐसे ही बिन्दु पद्धति से फलक में अंतराल को तोड़ते भी उन्होंने आकृतियों का सर्वथा भिन्न मुहावरा हमें दिया। यह ऐसा है जिसमें ग्लोबनुमा गोलों में रंगों की पारदर्षी परत में चलचित्रनुमा जीवंत दृष्यों का असीमित आकाष है। कभी उन्होंने तांत्रिक प्रतीक लेते हुए भी कैनवस को समृद्ध किया था। तंत्र साधना की समृद्ध परम्परा को रंग और रेखाओं के सृजन सरोकारों से जोड़ते उन्होंने लोक परम्पराओं, इतिहास, धर्म, मिथकों का अपने तई कैनवस पुनराविष्कार किया। तंत्र साधना चित्र ही क्यों तमाम उनके चित्रों की बड़ी विषेशता यही तो है कि उनमें कहीं कोई कथा, व्यथा अभिव्यंजित है। मानो कैनवस हमसे कुछ कह रहा है। मुझे लगता है, प्रेमचन्दजी कैनवस की किस्सागोई में सिद्धहस्त थे। किसी एक शैली में बंधकर रहने की बजाय बहुविध शैलियों, कला परम्पराओं में उन्होंने कार्य किया। कला में उन्होंने सदा नई राहों का अन्वेषण करते रंग, रेखाओं के संयोजन की संप्रेषणीयता का सर्वथा नया मुहावरा भी रचा।
यह जब लिख रहा हूं, रंगोत्सव श्रृंखला के उनके चित्र जेहन में फिर से कौंधने लगे हैं। लग रहा है, औचक कोई आकृति खिलखिलाकर सामने आएगी, हल्की सी मुस्कान देकर लौट जायेगी। रंग और रेखा संवाद का प्रेमचन्दजी का यह आमंत्रण उनके चित्रों में सदा ही मिलता रहा है। वह नहीं है परन्तु उत्सवधर्मिता की हमारी संस्कृति के उनके कैनवस कहन को क्या कभी हम भुला पाएंगे!
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