संगीत के सात स्वर षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हैं। सा रे ग म प ध और नि इन्हीं के पहले अक्षर से बने हैं। नाद से स्वर और स्वरों से सप्तक तैयार होता है। राग संस्कृत की धातु ‘रंज्’ से बना है। रंज माने रंगना। सात स्वरों से रंगना। उस्ताद अमीर खा़न को सुनते संगीत के सातों स्वरों में अर्न्तनिहित को गहरे से समझा जा सकता है। कहें सुर चिंतन है उनका गान। पहली बार सुनेंगे तो उनके गान की दुरूहता से कुछ झल्लाहट होगी। धीमी आलापकारी में उनकी बढ़त, स्वर विवर्धन की तान एकबारगी सुनने वाले के धैर्य की परीक्षा भी लेती है परन्तु जैसे-जैसे उनके स्वरों की गहराई से साक्षात् होता है, स्वर सम्मोहन से हम घिरने लगते हैं।
किराना घराने के अधिकांष संगीतकार इस बात पर सदा ही जोर देते रहे हैं कि खयाल गायकी में शब्दों का खास कोई महत्व नहीं होता परन्तु अमीर ख़ान ने कभी इससे इतेफाक नहीं रखा। उनकी गायकी शब्द का ओज है। अज्ञेय का कहा अनायास जेहन में कौंधता है, ‘षब्द ब्रह्म है।’ वह गाते नहीं संगीत की अनंतता के सागर की जैसे सैर कराते हैं। चौनदार खयाल गायकी की उनकी रागदारी भीतर के हमारे खालीपन को जैसे भरती है। द्रुत तीन ताल में उनका गाया ‘गुरू बिन ज्ञान...’ कानों में गूंजने लगा है। वह गा रहे हैं और शब्दों में निहित भावों की गहराई सुरों से जैसे दिल में उतरने लगी है। शब्दों में निहित संवेदना के सुरों से मन में अवर्णनीय सुकून होता है। रागों के निभाव में लयकारी और तानकारी की जो मौलिक सृष्टि अमीर ख़ान करते हैं, उसे बस अनुभूत भर किया जा सकता है। भिंडीबाजार घराने की खयाल गायकी की जिस धीमी गत को उनकी गायकी की मेरूखंड पद्धति कहा जाता है, मुझे लगता है वह पूरी तरह से संस्कारित अमीर ख़ान की गायकी से ही हुई। चौदहवीं शताब्दी के सारंगदेव लिखित संस्कृत ग्रंथ संगीत रत्नाकर में मेरूखंड पद्धति का उल्लेख मिलता है। खान साहब इसी पद्धति में आलाप की बढ़त करते। सधी हुई स्वर लहरी, तान और मींड की मिठास।
यह जब लिख रहा हूं बैरागी का उनका खयाल ‘मन सुमिरत निस दिन तुम्हारो नाम...’, ‘लाज रख लिज्यौ मोरी,...तू रहीम राम तेरी माया अपरम्पार...’ गान भी मन में घर करने लगा है। अद्भुत सुर दीठ। नवनिर्मिती की लगन और अनुपम कल्पनाषक्ति।
बहरहाल, यह वर्ष अमीर ख़ान का जन्मषती वर्ष है। उनके गान की सूक्ष्म कलात्मकता पर जाते गौर करता हूं, स्वर के सभी संभव क्रमचय और संचय वहां है। भावों का रस वहां है। शुद्ध रस। बगैर किसी मिलावट का रस। फिल्मांे में गाये उनके गान को ही लें। नौषाद साहब के लिये ‘बैजू बावरा’ में राग पुरिया धनश्री में ‘तोरी जय जय करतार...’, बंसत देसाई के संगीत निर्देषन में फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ (राग अदना) का उनका गाया शीर्षक गीत ‘झनक झनक पायल बाजे...’ सुनते हैं तो लगता है स्वर शुद्धता के साथ शब्दों में निहित भावों को वह अपने गान में गहरे से जीते थे। फिल्मों में उन्होंने गाया परन्तु संगीत की शुद्धता से वहां भी उन्होंने समझौता कहां किया! कभी उस्ताद अमीर खान के कहने पर ही स्वर कोकिला लता मंगेषकर ने एक वर्ष तक मौन व्रत धारण किया था। कहते हैं, ऊंचा सुर लगाते स्वर यंत्र में परेषानी के कारण लता को अपनी आवाज फटती हुइ महसूस हुई। अपनी यह परेषानी लेकर तब वह उस्ताद अमीर खान के पास पहुंची। अमीर खान साहब ने सलाह दी कि वह छह माह तक मौन रहे और एक साल तक कोई गाना न गाये। लता ने यही किया। मौन व्रत के बाद वर्ष 1962 में लता ने ‘बीस साल बाद’ में ‘कहीं दीप जले कहीं दिल..’ गीत गाया। इसके लिये उन्हें तब सर्वश्रेष्ठ पार्ष्वगायिका का सम्मान मिला।
अषोक वाजपेयी का लिखा जेहन में कौंध रहा है, ‘अपने समय से प्रायः उदासीन और निरपेक्ष लगते हुए भी संगीत काल से संवाद है, वह काल को संबोधित है।’ अमीर खान का गायन काल को संबोधित ही तो है।
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