
जगजीत सिंह की मर्मस्पर्षी आवाज दिल के अंदर जैसे हलचल मचा रही है। ‘किसने रास्ते में चांद रखा था, मुझको ठोकर लगी कैसे...।’ पहले गुलजार के लफ्जों के ‘मरासिम’ में और बाद में ‘कोई बात चले’ एलबम में जिस तरह से उन्होंने निभाया, वैसे क्या कोई ओर निभा सकता है! यही है पारम्परिकता के जड़त्व को तोड़ना।
संगीत के अधीरजनों की प्यास बुझाने के लिये ही जैसे उनका गान बना। उन्हें सुनते हुए गीत, गजल, भजन के बोल ही नहीं उन्हें बरतने का उनका अंदाज भी मन को भाता। यह उनका अपना और केवल अपना था। ऐसा जिसमें मुहब्बत को जिस्मानी रिष्तों से मनुष्य के वजूद से जोड़ने का प्रयास था। गायन की उनकी रोषनी में सर्जन की उन तमाम संभावनाओं को तलाषा जा सकता है जिसमें व्यक्ति अपने खुद के वजूद को ढूंढता है, अपने होनेपन को तलाषता है। मुझे लगता है गजल में छंद की संस्कृति को बोल की रंगत देते वह जो थरथरापन सुनने वालों को देते थे उसमें एक मीठा सा दर्द बंया होता था। गजल में यह रूमानियत लिये होता तो भजन में प्रार्थना के अंदरूनी संस्पर्षों की नीरवता को मुखरित करता हमें अपना लगता था। इसीलिये उनकी आवाज दिल की गहराईयों तक उतरती अपनी कषीष में दिलो दिमाग पर छा जाती है। हम डूब जाते हैं, संगीत के उनके समन्दर में। आंसू का सैलाब उमड़ता है...भीगती है रूह। याद पड़ता है, कभी सुनामी पीड़ितों की मदद के ख्याल से उन्होंने ‘साईं धुन’ एलबम निकाला था। यह धुन उनके मन की धुन थी। उस मन की जिसमें खुद उनका दर्द दूसरों के दर्द से घुल-मिल हल्का होता था।
बहरहाल, जगजीत राजस्थान के थे। श्रीगंगानगर के जाये जन्मे। संगीत की सुरूआती तालीम उन्हें छगनलाल शर्मा से मिली। बाद में सेनिया घराने के उस्ताद जमाल खान के वह शागिर्द भी बने। गायन की शुरूआत गुजराती फिल्म में पार्ष्वगायन से हुई और वर्ष 1976 में उनका एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल’ निकला। जगजीतसिंह ने सच में इससे जग को जीत लिया। याद करें इसमें गाया उनका वह गीत, ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी...’। यह शायरी की समझ वाला गान था। ‘कौन रोता है किसी और के गम की खातिर, सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया...।
उनका मूल नाथ था जगमोहन। गायन में जगजीत से मषहूर हुए। जग को मोहने वाला कहें या जीतने वाला क्या फर्क प़ड़ता है! सुरों की जगजीत की सर्वथा अलग कायनात, एक पूरी दुनिया उनके पास जो थी। इसमें सुनने वालों को वह कभी रूमानी तपिष का अहसास कराते तो कभी शर्मो हया का हिजाब डालते। गायन के अलहदा बिंब रचते वह खंड-खंड होते स्वरों को पिरोने की साझा विरासत जैसे हमें सौंप गये हैं। शायरी के मिजाज में आवाज का उनका घुला रस बहुविध रंगों में पतझर के दरख्तों के खालीपन का अहसास कराता है। वहां एक अलग तरह की बैचेनी, गहराई है। मन के रीतेपन को भरती हुई। गजल के बारे में मधुरिमा सिंह का लिखा औचक जेहन में कौंधने लगा है, ‘गजल जिदंगी की पलकों पर थरथराती हुई आसूं की बूंदे हैं जो सूरज की रोषनी अपने अंदर समाकर सतरंगी आभा से आलोकित हो जाती है।’ मुझे लगता है जगजीत सिंह की गायकी ऐसी ही है जिसमें धूप की नदी में पावं छपछपाती है चांदनी। आप क्या कहेंगे!
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