सावित्री पाल की कला में बुद्ध के निर्वाण के साथ ही उनके इस दर्षन से गहरे से साक्षात् हुआ जा सकता है। उनके बुद्ध हमारी चेतना को जगाते हैं। बुद्ध का अर्थ भगवान बुद्ध ही थोड़े ना है, बुद्ध का अर्थ है ज्ञान जो हमारे भीतर है। रेखाओं के अद्भुत न्यास में सावित्री पाल के चित्रों के खुलते अर्थ गवाक्षों में भले ही स्त्री-पुरूष आकृतियों के कोलाज सरलतम रूप मंे हमारे समक्ष आते हैं परन्तु उनमें निहित बुद्धत्व के भाव अलग से ध्यान खींचते है।
स्त्री-पुरूष संबंधों और उनकी अंतर्मन संवेदनाओं को रेखाओं के रूपाकार में वह देखने वाले की दृष्टि और उसके अनुभवों का विस्तार करती है। मुुझे लगता है, आपाधापी मंे तेजी से छूटते जीवन मूल्यों, भावनाओं के ज्वार और देह के भुगोल में सिमटते जा रहे रिष्तों की उनकी कलाकृतियां एक तरह से गवाही देती है। जो जीवन हम जी रहे हैं, उसके द्वन्दों को सावित्री पाल की कला गहरे से रेखाओं में व्याख्यायित करती है। प्रतिदिन के जीवन से रू-ब-रू होने के बावजूद हम कहां उसको समझ पाते हैं। बहुतेरी बार जब तक समझते हैं, तब तक अनुभूति बदल जाती है। जीवन में जो कुछ छूट जाता है, उस छूटे हुए को सुक्ष्म संवेदना, दृष्टि में सावित्री पाल अपने चित्रों में जताती हुई भी लगती है। सहज, सरल मानवाकृतियों के साथ ही पार्ष्व के परिवेष, बेल-बूटे, लताओं, फूलों और तमाम चित्र के दूसरे परिदृष्य में उनका कलाकर्म आमंत्रित करता है, बहुतेरी बार देखने वाले पर हावी होता है, कुछ कहने के लिए मजबूर करता हुआ।
ब्हरहाल, सावित्री पाल के चित्र संवेदना के जरिए गतिमान होते हैं। उनमें भावों की लय है। वहां उत्सवधर्मिता, विषाद, हर्ष की अनुभुतियां भी है तो आकृतिमूलक कला का वह माहौल भी है जिसमें अनुभव और मन के भावों से बनती नारी-पुरूष देह यष्टि के हाव-भाव आपको भीतर से झकझोरते हैं, कुछ सोचने को विवष करते हुए। परम्परा का निर्वहन तो वहां है परन्तु आधुनिकता की वह संवेदनषीलता भी है, जिसमें उभरे प्रतीक, बिम्ब देखने वाले से संवाद करते हैं।
कांट का कहा याद आ रहा है ‘प्रकृति सुन्दर है क्योंकि वह कलाकृति जैसी दिखती है और कलाकृति को तभी सुदंर माना जा सकता है जब उसका कलाकृति जैसा बोध होते हुए वह प्रकृति जैसी प्रतीत होती है।’ स्त्री-पुरूष से ही तो यह प्रकृति है। सोचिए! प्रकृति की लय यदि गायब हो जाय तो क्या फिर हम सौन्दर्य का आस्वाद कर सकते हैं!
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