कला के इस दौर में बहुत से स्तरों पर विचार और प्रतिक्रियाएं गहन आत्मान्वेषण से मुखरित होती कैनवस के बंधन से मुक्त है। रंग, रेखाओं के साथ डिजीटल इमेजेज और ध्वनियांे के कोलाज में दृष्यों को सर्वथा नये ढंग से रूपायित करने की कला की यह नयी दीठ न्यू मीडिया है। पिछले कोई एक दषक में कला क्षेत्र मंे न्यू मीडिया की दखल से बराबर यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या कैनवस कल इतिहास बन जाएगा? क्या तकनीक भविष्य में कला कही जायेगी? और यह भी कि क्या तकनीक में रचनात्मकता की अनंत संभावनाएं पारम्परिक हमारी कलाओं को रूढ़ बना देगी? न्यू मीडिया से संबंधित इन तमाम सवालों का जवाब सद्य प्रकाषित हिन्दी की स्वतंत्र कला पत्रिका ‘कैनवास’ में ढूंढा जा सकता है।
बहरहाल, अव्वल तो हिन्दी में कला पत्रिकाएं हैं ही नहीं और जो हैं वे परम्परागत प्रकाषन की परिधि से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाती है। ललित कला अकादमी की ‘समकालीन कला’ और स्वतंत्र रूप मंे प्रकाषित द्विभाषी ‘कलादीर्घा’ जैसी पत्रिकाओं को छोड़ दें तो हिन्दी में कला में स्तरीय ढंूढे से भी नहीं मिले। कला समीक्षक मित्र विनयकुमार के संपादन में प्रकाषित ‘कैनवास’ पत्रिका कुछ दिन पहले जब हस्तगत हुई तो एक साथ दो सुखद आष्चर्य हुए। पहला तो यही कि हिन्दी मंे भी अंग्रेजी सरीखी, बल्कि उससे कहीं बेहतर किसी पत्रिका का आगाज हुआ है और दूसरा यह कि ‘न्यू मीडिया’ से संबंधित तमाम उभर रहे द्वन्द, चुनौतियों और रचनात्मकता पर सांगोपांग विमर्ष लिए आलेख इसमें प्रकाषित किए गए हैं। मसलन प्रयाग शुक्ल ने न्यू मीडिया के अंतर्गत उभर रही कला के आकर्षण को रेखांकित करते उसकी रचनात्मक सामग्री को अपने तई व्याख्यायित किया है तो अनिरूद्ध चारी डिजीटल की प्रकृति, भ्रम और यथार्थ पर लिखते न्यू मीडिया को सामग्री और माध्यम दोनों का प्रतिनिधित्व बताते हैं। तान्या अब्राहम ने अपने आलेख में न्यू मीडिया को किसी बड़े और व्यापक सिद्धान्त और समझ को लोगों तक फैलाये जाने के लिए महत्वपूर्ण बताया है। वह जब यह लिखती है तो सहज ही यह समझा जासकमता है कि कला में तकनीक संप्रेषण का माध्यम तो हो सकती है परन्तु तकनीक को कला नहीं कहा जा सकता। डॉ. अवधेष मिश्र ने समकालीन कला के कल के अंतर्गत न्यू मीडिया की विसंगतियों को उभारा है तो समयानुकूल विषयों की रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसे अपनाने पर जोर भी दिया है।
पूर्वोत्तर भारत में न्यू मीडिया पर पत्रिका में ढ़ेर सारी सामग्री है। मेघाली गोस्वामी न्यू मीडिया की परिधि में पूर्वोत्तर भारत को समेटते वहां की उग्रवाद की समस्या की प्रतिक्रिया में कला और उसके सरोकारों पर चिंतन करती न्यू मीडिया के अस्थायित्व की समस्या को भी गहरे से उठाती है। प्रणामिता बोरगोहेन, मनोज कुलकर्णी, संध्या बोर्डवेकर, वंदना सिंह द्वारा प्रस्तुत सामग्री भी मौजूं है।
हां, न्यू मीडिया की तमाम चर्चाओं के बीच भी विनयकुमार हेब्बार के जन्मषती वर्ष पर ज्योतिष जोषी का आलेख देना नहीं भुले है और देषभर मंे आयोजित कला गतिविधियों की जानकारियां देने की पहल भी ‘कैनवास’ के जरिये की है। प्रोफाइल के अंतर्गत समीत दास, कनु पटेल, शैलेन्द्र कुमार, कमल पंड्या, प्रतीक भट्टाचार्य, सुषांत मंडल, प्रतुल दास का कहन पत्रिका का रोचक पक्ष है। हां, पत्रिका की आधी सामग्री अनुदित है। संपादक चाहकर भी हिन्दी में कला की वांछित सामग्री जुटा नहीं पाये होंगे, इसीलिए शायद ‘कैनवास’ को अगले अंक से द्विभाषी किये जाने की घोषणा की गयी है। ष्
जो भी हो, इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि स्तरीय कला पत्रिका के अभाव की ‘कैनवास’ षिद्दत से पूर्ति करती है। किसी एक विषय को लेकर उस पर गहन चिंतन, मंथन की यह पहल कला पत्रिका प्रकाषन के सुखद भविष्य का संकेत ही क्या नहीं है!
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