Monday, April 25, 2011

संस्कृति और इतिहास का दृष्य-श्रव्य आख्यान



इतिहास की अविरल धारा में संस्कृति और कलाएं हमें ज्ञानोन्मुख करती भविष्य की नवीन दीठ देती है। चिरंतन और लौकिक है हमारा इतिहास। मात्र तथ्यों का संकलन भर नहीं है इतिहास बल्कि साक्ष्य, दस्तावेज और अवषेषों की उपलब्धता में यह हमसे हर समय जैसे संवाद करता है। हमारी जो संस्कृति, परम्पराएं, और कलाएं हैं, उनके अतीत से ही तो सृजित हुआ है यह वर्तमान। माने वर्तमान की नींव हमारा अतीत है, बीता हुआ कल है।

बहरहाल, बात करें राजस्थान के इतिहास की। यह रंग-बिरंगी धोरां धरती की उत्सवधर्मी संस्कृति और गौरवमयी परम्पराओं का जैसे अनूठा गान है। पिछले दिनों दूरदर्षन, जयपुर द्वारा प्रसारित वृत्तचित्र ‘मैं राजस्थान हूं’ का आस्वाद करते लगा, इतिहास तथ्यों का संकलन भर नहीं है बल्कि गुजरे हुए कल का कला की दीठ से व्याख्यात्मक पुनर्निमाण है। शैलेन्द्र उपाध्याय ने अपनी कला संपन्न दृष्टि से राजस्थान के इतिहास को गहरे से संजोया है। शब्दों से उसे जीते दृष्य-श्रव्य में धोरां धरती की संस्कृति और समृद्ध कलाओं का रोचक आख्यान ही एक प्रकार से उन्होंने इस वृत्तचित्र में प्रस्तुत किया है। इतिहास के प्रसंगों, घटनाओं के ब्योरों मंे ले जाते वृत्तचित्र की खास बात यह है कि इसमें शब्दों की दृष्यचित्रात्मकता में अतीत से वर्तमान की कदमताल है। राणा प्रताप की आन-बान और शान के साथ ही ‘इला न देणी, आपणी हालरियो हुलराय’ का दृष्य-श्रव्य चितराम हो या फिर आजादी के लिए आऊवा के बलिदान के बहाने खुलते अतीत के वातायन में इतिहास के साथ संस्कृति के बहुतेरे अछूते प्रसंग। सब में हमारी संस्कृति की जीवंतता है। डाक्यूमंेट्री 1857 की क्रांति में राजस्थान की भूमिका का रोचक डॉक्यूड्रामा भी है तो इसमें मानगढ़ का सिंहनाद, ऊपरमाल की अनुगूंज, एकी का अनुष्ठान, नवयुग के नव अवतार, स्वाधीनता का सूर्योदय, पंचायतीराज की शुरूआत जैसे रोचक दृष्य खंड राजस्थान के अतीत की मनोरम झांकी है। शैलेन्द्र उपाध्याय स्वयं कवि, साहित्यकार हैं सो उन्होंने अपने तई वृत्तचित्र में रेत के धोरों के कहन को कलात्मक सौन्दर्य भी अनायास ही दिया है। इस सौन्दर्य में ऋग्वेद की ऋचाओं में आए मरूप्रदेष का जिक्र है तो यहां के लोगों की उत्सवधर्मी संस्कृति का अनूठा शब्द कैनवस भी है। वृत्तचित्र के जरिए ऐतिहासिक आख्यान को लोकनृत्य, लोक संगीत और चित्रकला से हर ओर, हर छोर से संवारा गया है। मसलन घटनाओं की राजस्थानी चित्रषैलियों की साक्षी और रेखाचित्रों, कविताओं से दृष्यों का पुनर्सजन। ऐसा करते वृत्तचित्र की पारम्परिक बुनावट की जड़ होती परम्परा को तोड़ा भी गया है। सम्पूर्ण डाक्यूमेंट्री गत्यात्मक प्रवाह की सृजनषीलता में इतिहास के ब्योरों, सूचनाओं, घटनाओं और प्रसंगों का रोचक आस्वाद कराती है। खंडहर महलों से झांकते इतिहास के गलियारों से वर्तमान में हुए राजस्थान के विकास वातायन में राजस्थान के कलामय जीवन की सांगीतिक अनुगूंज भी इस वृत्तचित्र की वह बड़ी विषेषता है जो हमें बांधे रखती है।

रेतघड़ी में इतिहास की करवटों को इसमंे बखूबी संजोया गया है। इसीलिए वृत्तचित्र दरअसल चलचित्र दृष्य कोलाज के अनूठे बिम्ब और प्रतीक लिए देखने वाले से बतियाता है। अर्सा पहले राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी हुसैन की फिल्म ‘थ्रू द आईज ऑफ एक पंेटर’ देखी थी। इसमें कोई कहानी नहीं थी बस इम्प्रेषंस हैं। कुछ शक्लें, सूरतें, छतरी, लालटेन, महलों के साथ कला के सुर और लय। ‘मैं राजस्थान हूं’ देखते न जाने क्यों वह फिल्म याद आ गयी! शायद इसलिए कि इसमें दृष्य-श्रव्य कोलाज के अंतर्गत इतिहास के कला-संस्कृति प्रभावों की अनूठी कला दीठ जो है। प्रसारण में व्यावसायिकता के इस चरम दौर में दूरदर्षन जैसे सार्वजनिक प्रसारण माध्यम से ही अब इस प्रकार के सृजनात्मक वृत्तचित्रों के प्रसारण की उम्मीद की जा सकती है वरना इतिहास और संस्कृति की सूझ की ऐसी बूझ ओर कहां!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास
 का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 22-4-2011


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