बहरहाल, हमारी जो परम्परागत कलाएं हैं, उनमंे जीवन के हर पहलू की अनुगूंज है। मानव के अपने परिवेश की स्मृतियां इनमंे हैं और है अर्न्तनिहित भावना का साकार रूप। राजस्थान तो हस्तकलाओं, हस्तशिल्प परम्पराओं का जैसे गढ़ है। पन्नालाल मेघवाल ने पिछले दिनों अपनी पुस्तक ‘शिल्प सौन्दर्य के प्रतिमान’ जब भेंट की तो लगा मैं हस्तकलाओं, हस्तशिल्प के इस गढ़ में जैसे प्रवेश कर गया हूं। गढ़ का द्वार खुलता है तलवार, खुखरी, खंजर, गुप्ती, ढ़ाल-तलवार आदि पर नक्काशी करने वाले सिकलीगर परिवारों की कला के बखान से। आगे बढ़ता हूं तो पुस्तक गढ़ की दरो-दीवारों पर कांच पर सोने के सूक्ष्म चित्रांकन की बेहद सुन्दर थेवा कला है। मिट्टी से निर्मित छोटे-छोटे गवाक्ष, जालियां, कंगूरों की गृहसज्जा में उपयोग आने वाली मिट्टी की महलनुमा कलाकृतियां ‘वील’ है। लकड़ी का चलता फिरता देवघर काष्ठ-तक्षित कावड़ है और है बाजोट, मुखौटे, कठपुतली, लाख की कलात्मक वस्तुएं, मोलेला की मृणमृर्तियां, पीतल के गहने-भरावे, शीशम की लकड़ी पर किये तारकशी आदि की मनोहारी कलाएं। लोक मन के अवर्णनीय उल्लास, उमंग की सौन्दर्य सृष्टि करती कलाओं का मेघवाल का पुस्तक गढ पाठकीय दीठ से हर ओर, हर छोर से लुभाता है। पन्नालाल ने इस गढ़ को कलाकारों से बतियाते और राजस्थान की कला से संबद्ध बहुतेरी पुस्तकों को खंगालते रचा है। इस रचाव में वे राजस्थान की प्रमुख कलाओं, हस्तशिल्प आदि की सहज जानकारी तो देते ही हैं, साथ ही लुप्त होती उन कलाओं की ओर भी अनायास ध्यान आकर्षित करते हैं, जिन्हें आज संरक्षण की अत्यधिक दरकार है।
कला की प्रभा और प्रतिभा सदा सर्वोन्मुखी रही है। ऐसा है तभी तो हमारी इन पारम्परिक कलाओं को हम आज भी अपने घरों मंे सहेजे हुए हैं। लोक का क्या अब यहीं ही नहीं बचा रह गया है आलोक!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित
डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "काका तट" दिनांक 17-09-2010
saarthak aur promotional article.
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ReplyDelete"लोक का आलोक" पोस्ट में आपने पन्नालाल मेघवाल की पुस्तक शिल्प "सौन्दर्य के प्रतिमान" की समीक्षा की। आपके ही शब्दों में "हस्तकलाओंए हस्तशिल्प के इस गढ़ में जैसे प्रवेश कर गया हूं।" सौन्दर्य और भावपूर्ण समीक्षा के लिए आभार। इस पोस्ट को मैं मेघवाल समाज को समर्पित अपने ब्लॉग "मेघयुग" पर साभार प्रकाशित कर रहा हूं।
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