"राजस्थान पत्रिका" के रविवारीय, दिनांक 4 अप्रैल 2010 को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास की समीक्षा
नन्द किशोर आचार्य के सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह "उड़ना संभव करता आकाश" उनके सर्वथा नये कवि रूप से साक्षात्कार कराता है। इस रूप में कि इस संग्रह की उनकी लगभग सभी कविताएं समय, समाज और परिवेष के अंतर्गत शब्दों की नीरवता के बीच के स्पेस को सर्वथा नये अर्थों में व्याख्यायित करती है। वे संग्रह में जिज्ञासाओं को खड़ा करते हैं, उनसे संवाद करते हैं और चुपके से शब्दों के बीच की नीरवता में उनका समाधान भी कर देते हैं। ऐसा करते हुए भाषा की उनकी लाक्षणिकता और कलात्मक अनुशासन पर औचक ही ध्यान जाता है, ‘नहीं होती है शब्दों में-/बीच की नीरवता में/होती है कविता/नीरवता!यह क्या है/षब्द ने सोचा/जानना चाहिए इस को/चुपके से उतर गया/उसमें...’
"उड़ना संभव करता आकाश" की बड़ी विषेषता यह भी है कि इस संग्रह की कविताओं में आचार्य ने व्यक्ति की आस्थाओं, मन में उपजे संदेहों और एंकात की संपूर्णता को भी सर्वथा नये अर्थ दिए हैं। इस नये अर्थ में जो ध्वनित होता है, उसे जरा देखें, ‘‘मेरा एकान्त/हो आया/दुनिया तुम्हारी जैसे/कभी एकान्त को अपने/मेरी दुनिया में/ढ़लने दो..’ और ‘‘निंदियायी झील के जल में/सोते हुए अपने को/देखता रहूं/तुम्हारे सपनों के जल में/कभी पत्ता कोई झर जाय/नीरव...।’
नंदकिशोर आचार्य के पास भाषा की अद्भुत कारीगरी है परन्तु यह ऐसी है जिसमें षिल्प या शैली के चमत्कार का आग्रह नहीं है। बात कहने का उनका अपना मौलिक अंदाज है, इस अंदाज में शब्दों के अपव्यय से उन्हें परहेज है। शायद यही कारण है कि कविता के उनके शब्द अगले शब्दार्थ को खुद ही खोलते नजर आते हैं। देखें, जरा छोटी सी बानगी ‘केवल अपने रंग में रहना/कम बेरंग होना है/यह उस हरे से पूछो/जिसका खो गया है लाल/या लाल से जानों/जिसका हरा गया है हरा।’
"उड़ना संभव करता आकाश" की कविताओं में आचार्य ने अपने एकांतिक क्षणों को कविता में गहरे जीते जीवनानुभवों और अन्तर्मन संवेदनाओं के आकाष से भी पाठकों का बेहद खूबसूरती से साक्षात्कार कराया है। यहां उनकी बहुत सी आत्मपरक कविताएं भी है जो उनका निजीवृत बनाती, पाठकों की संवेदनाओं को भी गहरे से दस्तक देती है। अपनी पूर्ववर्ती कविताओं की भांति ईष्वर के सबंध में उपजे भावों को उन्होंने यहां नये अर्थों में व्याख्यायित किया है। वे ईष्वर के होने और न होने के बीच के स्पेस को भरते विमर्ष की जैसे नयी राहें खोलते हैं, ‘‘जीवन से पहले है/ईष्वर/जीवन के बाद/मृत्यु है/दोनों ही निर्थक होते जो/दोनों के बीच/या जीवन/लेता हुआ सांसे/तुम्हारे वायुमंडल में।’
बिम्ब और प्रतीकों से उभरते अर्थों में दरअसल आचार्य कविता का नया रूपक बनाते हैं। मुझे लगता है, काव्य भाषा के साथ काव्यवस्तु में जो कुछ अव्यक्त और सामान्यतया अननुमार्गणीय है, उसे अभिव्यक्त और अभिव्यंजित करती संग्रह की उनकी कविताएं दरअसल कविता की कलात्मक खोज भी है। इस खोज में परम्पराबोध तो है परन्तु जड़त्व को तोड़ने का प्रयास भी हर ओर, हर छोर है। मसलन ‘लय रच जाना उस का’ कविता को ही लें, ‘हर उड़ना/सम्भव करता आकाष/लय होता हुई उस मेंः/उड़ने का आनंद है/पाखी/लय रच जाना उस का/मुक्ति मेरी हो जाना है।’
"उड़ना संभव करता आकाश" संग्रह पढ़ते बार-बार यह अहसास भी होता है कि यहां वे अपनी पूर्व कविताओं को ही नहीं बल्कि अपने समकाल को भी जैसे नये सिरे से पुनर्संस्कारित करते हैं।
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