Friday, May 25, 2012

बचा रहे शास्त्रीय कलाओं का हमारा मूल


कल आनंदकुमार स्वामी को पढ़ रहा था। वह स्थापित करते हैं, ‘नवीनता नवीन बनाने में नहीं, नवीन होने में है।’ इस समय जब भारतीय शास्त्रीय कलाओ पर विचारता हूं तो उनका यह कहा गहरे से घर करता है। शास्त्रीय नृत्य, चित्रकला का मूल वही है, शास्त्रीय गायन,वादन में मूल राग वही है जो बरसों से हम सुनते आए हैं फिर भी इन शास्त्रीयकलाओं में कलाकार सदा प्रस्तुति में नवीन करता है। इस नवीन में ही रसानुभूति हैं। फिर से कुछ सुनने, फिर से कुछ गुनने की। परन्तु अपसंस्कृति के इस समय में शास्त्रीय कलाओं का यह मूल हमसे जैसे निरंतर दूर भी हो रहा है।
बहरहाल, भारतीय दर्षन में कलाओं को शुद्ध रूप से जीवन से अभिहित किया गया है। ऐसा जब है तो फिर क्या यह विचारणीय नहीं है कि हम अपनी शास्त्रीय कलाओ के नवीनता के उस मूल को कितना बचाए रख पा रहे हैं? मुझे लगता है, कुछेक लोकप्रिय कलाओं को छोड़ हम बहुतेरी हमारी सांस्कृतिक कलाओं से लगातार दूर और दूर हुए जा रहे हैं। कभी राजस्थान के मांगणियारों, लंगो का लोक संगीत धोरों की अनूठी रेत राग से मेल कराता कानों में शहद घोलता था, उसे नवीन बनाने के चक्कर में सूफी संगीत लोक संगीत बन गया है। इसी तरह शास्त्रीय संगीत के स्वर भी बहुत से स्तरों पर फ्यूजन में कनफ्यूज हो रहे हैं। शास्त्रीय नृत्यों को कोरियोग्राफी के नाम बिगाड़ शारीरिक लयकारी में तब्दील किया जा रहा है। चित्रकला में इन्स्टालेषन के नाम पर मनमानी हो ही रही है। सोचता हूं, ऐसा ही होता रहा तो आने वाली पीढ़ी में कलाओं का हमारा मूल क्या कुछ बचा भी रहेगा! 
कुछ समय पहले अषोक वाजपेयी के नेतृत्व में पं. बिरजू महाराज, पं. हरिप्रसाद चौरसिया, उस्ताद जाकिर हुसैन, पं. राजन-साजन मिश्र, पं. षिवकुमार शर्मा, टी.एन. कृष्णन, सुधा रघुनाथन, यू.श्रीनिवासन आदि कलाकारो के एक दल ने मिलकर षास्त्रीय कलाओं के संरक्षण के लिये संसद भवन में प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी। इसके तहत शास्त्रीय कलाओं को प्रोत्साहित करने के लिये बड़े व्यावसायिक घरानों की एक प्रतिषत आय को आयकर मुक्त कर उसे सांस्कृतिक गतिविधियों मंे लगाने, अलग से सांस्कृतिक टेलीविजन चैनल स्थापित करने आदि की मांग की गयी थी। इन मांगों पर सरकार ने क्या किया है और क्या कुछ करने जा रही है, कुछ कहा नहीं जा सकता परन्तु सोचने की बात यह भी है कि शास्त्रीय कलाओ के लिये खुद समाज क्या कर रहा है? स्पीक मैके, श्रुति मंडल और सरकारी संस्थाएं, अकादमियां अपने स्थायी आयोजनों में कलाओं का प्रदर्षन, प्रोत्साहन के उपक्रम करती भी हैं परन्तु शास्त्रीय कलाओं के आयोजन से ही क्या हम हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को मूल रूप में सहेज पाएंगे? शास्त्रीय कलाओं के अपसंस्कृतिकरण, अरूपीकरण को क्या इससे रोका जा सकता है? इन पर गहरे से विचारने की जरूरत है। 
यह सही है कि शास्त्रीय संगीत, नृत्य और लोक कलाओं के आयोजनों से इन कलाओं को प्रोत्साहन मिलता है परन्तु इतना ही सच यह भी है कि इनसे नया कोई श्रोता वर्ग, दर्षक वर्ग खड़ा नहीं किया जा रहा। वही है जिनकी रूचि शास्त्रीय कलाओं में है। फिर से गौर करें, रसिकता नया बनाने से नहीं नये होने से ही पैदा की जा सकती है। इसका अर्थ है, आयोजनों के पार्ष्व में भी इस ‘नये होने’ पर विचार करना होगा। सोचता हूं, अभिनेता आमीर खान ने ‘सत्यमेव जयते’ में वही कुछ कहा है, उसी पर ध्यान दिलाया है जिस पर अरसे से कहा, ध्यान दिलाया जाता रहा है परन्तु प्रस्तुति के और मंषा के उनके नयेपन से उनके शो ने अधिसंख्य लोगों का ध्यान खींचा है। शास्त्रीय कलाओं की प्रस्तुतियों के साथ कलाओं की सहज समझ, जानकारियां, रसिकता के लिये भी कुछ ऐसा ही नया करना होगा। 
उस्ताद अमीर खॉं, पं. भीमसेन जोषी, पं. जसराज ने वही राग गाए हैं जो उनसे पहले गायक गाते आए हैं, पं. बिरजू महाराज ने वह नृत्य किया जो पहले होता रहा परन्तु इन सबने अपने को मूल में साधा। पुनर्नवा किया। आनंद कुमार स्वामी इसीलिये फिर से याद आ रहे हैं, ‘नवीनता नवीन बनाने में नहीं नवीन होने में है।’ शास्त्रीय कलाओं को बचाने, उनके संरक्षण के लिये यही मूल मंत्र हो सकता है। 

Friday, May 18, 2012

परकोटों से झांकता अतीत

उपयोगिता में सौन्दर्य की सृष्टि का प्रयास माने कला। किले, गढ़ और महल रहने के लिये, सुरक्षा के लिये बनाये गये परन्तु वहां कलात्मकता का भी कोई ओर-छोर नहीं है। हवेलियों को ही लें। जैसलमेर और बीकानेर की हवेलियां सौन्दर्य में अप्रतिम है। आवासीय उपयोगिता और कलात्मकता का अद्भुत मेल जो वहां है।
 ‘स्थपतेः कर्म स्थापत्यम्’ यानी स्थापन का कार्य स्थापत्य है। नगरों की बसावट में स्थापत्य और वास्तु कला का योग ही तो रहा है। पुराने लगभग सभी नगर कलात्मक परकोटों से घिरे मिलेंगे। अलंकारयुक्त परकोटों से। भले बेतहाषा बढ़ती आबादी में परकोटों को तोड नगर अपनी सीमाएं बढ़ा रहे है परन्तु नगरों के भीतर के परकोटे द्वार आज भी निर्माण की कला की जैसे गवाही देते हैं।  
परकोटों से घिरा जयपुर  विष्व का कभी सर्वाधिक सुनियाजित षहर रहा है। कनक वृन्दावन स्थित मंदिरों में जब भी जाता हूं, आमेर घाटी से दूर तक दिखाई देने वाला षहर का सुन्दर से परकोटे का अंष मन मोह लेता है। औचक, मन में यह अहसास भी होता है कि किसी नगर का रक्षा कवच ही नहीं बल्कि सुन्दर वस्त्राभूषण परकोटा ही तो रहा है।
बहरहाल, परकोटे अब अतीत बन रहे हैं। जनसंख्या बढ़ी तो शहर की सुरक्षा के यह पहरेदार गिरा भी दिए गए। कहीं अभी भी परकोटे हैं परन्तु शहर से बाहर नहीं शहर के अंदर। यानी पुराना शहर। नया वह जो इस परकोटे से बाहर बसा है। जैसलमेर का सोनार किला विष्व में शायद पहला ऐसा दुर्ग है जहां आज भी किले में आबादी रहती है। घेरदार घाघरे की मानिंद परकोटे से घिरा विषाल दुर्ग और अंदर आबादी। बाहर से देखें तो किले के कलात्मक परकोटे से आभाष ही नहीं होता कि अंदर पूरी की पूरी एक सभ्यता वास कर रही होगी.. परन्तु सच यही है। 
परकोटों को ओढ़े षहरों में मेरा अपना षहर बीकानेर भी है। परकोटे के द्वारों से गुजरता हूं। कितने द्वार परकोटे के रहे हैं, शायद बता ही नहीं सकूं परन्तु कोटगेट के तीन द्वार, जस्सूसर गेट के तीन द्वार और नत्थूसर गेट और भी न जाने कितने द्वार अपने परकोटे सौन्दर्य से अभिभूत करते हैं। अब तो खैर सभी स्थानों पर आबादी भी इतनी हो चुकी है कि परकोटो वाले षहर और परकोटे के बाहर वाले शहर का भेद ही नहीं रहा। कभी पुराना और नया षहर कहकर जो अंतर परकोटे और परकोटे विहिन षहर का किया जाता था वह भी खत्म हो चुका है। हां, जोधपुर में परकोटे के भीतर एक षहर है और बाहर दूसरा। जालौरी गेट, सोजती गेट जैसे कितने ही गेट परकोटे से घिरे षहर में अभी भी प्रवेष कराते हैं।
भारत के साथ विष्व के दूसरे देष भी परकोटे की कला संजोए हैं। पुर्तगाल का ओबिडोस कस्बा पहाड़ी पर बसा है। परकोटे से घिरा। दूर से देखें तो किले का सा अहसास कराता। ऐसा ही इजरायल की राजधानी के साथ भी है। पवित्र नगरी जेरूषलम परकोटे से घिरा बेहद खूबसूरत ष्षहर है। हां, वहां भी परकोटे से बाहर बसावट हो चुकी है परन्तु परकोटे के भीतर अभी भी पुराना ष्षहर इतिहास की अपनी विरासत को संजोए है। यूनाईटेड किंगडम की यार्क सिटी भी परकोटे से घिरी है। यह षहर बारहवीं से चौदहवीं वीं सदी में चारों तरफ बनी लम्बी दीवार से घिरा है। चीन के झियान षहर के परकोटे का तो कहना ही क्या! परकोटे की दीवारें इतनी चौड़ी है कि आराम से वहां वाहन चल सकते हैं। ग्यारहवीं ष्षताब्दी के आस-पास बना पष्चिमी स्पेन का एविला षहर भी परकोटों की शान लिए है। इस षहर की प्राचीर में नौ द्वार बने हुए हैं और 88 टॉवर है। भूमध्य के पर्यटन स्थलों मे से एक क्रोएषिया का एतिहासिक नगर डबरोवनिक परकोटे के सौन्दर्य का अप्रतिम उदाहरण है। एड्र्यिाटिक सागर तट पर बने इस षहर को इसीलिये ‘एडियाटिक का मोती’ कहा जाता है।
जो हो, इस बात से इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि हमारी जो प्राचीन सभ्यताएं रही हैं, उनमें सुरक्षा उपयोगिता में भी कला का अद्भुत मेल किय गया था। कला की यही तो सौन्दर्य सृष्टि है। इसीलिये तो हमारे यहां कला को जीवन से जुड़ा बताया गया है। 


Friday, May 11, 2012

कलाओं पर संवाद की राह खुले



रवीन्द्र जन्मषती वर्ष के अंतिम दौर में रवीन्द्रमंच सोसायटी और नाट्यकुलम ने जयपुर में रवीन्द्र प्रणति समारोह कर कलाओं पर चिंतन को जैसे नया आकाष दिया है। कहें, कविन्द्र रवीन्द्र की कलाओं की प्रस्तुति के साथ ही उन पर संवाद की यह सार्थक पहल थी। रवीन्द्रनाथ टैगौर की जन्मषती पर देषभर में आयोजन हुए। उनके कलाओं की प्रस्तुतियां हुई परन्तु उनकी कला दृष्टि पर चिंतन की नई राह कहीं खुलती नजर नहीं आयी। कह सकते हैं, इस दृष्टि से प्रणति समारोह आष जगाता नजर आया। 
टैगोर सम्पूर्ण कलापुरूष रहे हैं। उन्होंने कविताएं लिखी, नाटक लिखे, स्वयं अभिनय किया, रवीन्द्र संगीत रचा और तो और उम्र के उत्तरार्द्ध में चित्र भी बनाए। माने उनके पास भरपूर कला दीठ थी।  उनके लिखे नाटकों, चित्रों, संगीत में इस दीठ को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है परन्तु यह विडम्बना ही कहें कि उनकी कला दृष्टि पर जिस गहराई से चिंतन और विमर्ष होना चाहिए, वह नहीं हुआ। हां, उनके साहित्य पर फिर भी कहने लायक कार्य हुआ है परन्तु उनका कलाकर्म आलोचकीय दृष्टि से बहुत से स्तरों पर अछूता ही रहा है।
बहरहाल, प्रणति समारोह में रवीन्द्र मंच पर टैगोर की कला दीठ पर बोलते हुए खाकसार ने यह प्रस्तावित किया कि उनके चित्रों की एक प्रदर्षनी और उस पर संवाद की शुरूआत हो। यह भी कि उनके संगीत की प्रस्तुति के साथ ही उस पर अधुनातन सोच से चिंतन का भी अलग से अवकाष निकले। कला मर्मज्ञ मुकुन्द लाठ ने टैगौर के काव्य और संगीत के संतुलन की गहरे से विवेचना की। उनके इस कहे के आलोक में क्यों नहीं रवीन्द्र संगीत पर पर गहरे से मंथन की कोई राह निकाली जाए। रवीन्द्र मंच सोसायटी की प्रबंधक नीतू राजेष्वर कलाओं की गहरी समझ लिये उत्साही अधिकारी हैं। सोचता हूं, सरकार में कला-संस्कृति महकमे में ऐसे ही अधिकारी हों तो बात बन सकती है। मुझे लगता है, कला संसार की बड़ी विडम्बना यही है वहां संवाद नगण्य है। माने कला प्र्रस्तुतियां तो तमाम स्तरों पर हो रही है परन्तु कलाओं में निहित पर संवाद की परम्परा जैसे समाप्त सी होती जा रही है। संवाद हो भी रहा है तो वह अकादमिक ढर्रे में इस कदर बोझिल है कि उससे कलाओं के प्रति नई पीढ़ी में रूझान पैदा होगा, इसमें संदेह है।
रवीन्द्र नाथ टैगौर के कलाकर्म पर विचारते मन में आ रहा है, इस छोटे से जीवन में कितना कुछ उन्होंने किया।  हम जो हैं, उनके किये के बहाने ही कलाओं में कुछ नहीं करते।  अव्वल तो कलाओं पर आयोजन ही नहीं होते और जो होते है वह विष्वविद्यालयों, षिक्षण संस्थाओं या फिर अकादमियों के बजट संपूर्ति की औपचारिकता लिये होते हैं। वहां जो लोग बोलते हैं, वे परम्परा का ढोल बजाते हुए वही कुछ दोहराते हैं जो पाठ्यपुस्तकों में है या फिर दूसरे स्थानों पर उपलब्ध है। जो कुछ पहले से रचा है, जिस पर पहले से आलोचकीय दृष्टि उपलब्ध है, उसे आखिर कितनी बार हम प्रस्तुत करेंगे। रवीन्द्र ने 67 वें वर्ष में चित्रकला की शुरूआत की। इसलिये कि उन्हें लगा, जो उनका काव्य नहीं कर पा रहा है, जो उनका संगीत नहीं कर पा रहा है-हो सकता है वह चित्रकला कर जाए। नयेपन की इसी छटपटाहट से कलाएं संस्कारित होती है। अप्रकट का प्रगटन, अप्रत्यक्ष का दर्षन यही तो है। रवीन्द्र की तो तमाम कला दृष्टि यही है। रवीन्द्र संगीत में पारम्परिक राग-रागिनियां है परन्तु श्रवण में आनंद के अवरोधों की जकड़न नहीं है। स्वरानंद के साथ भावों का रस वहां है। बंधनों में निर्बन्ध। ऐसा ही उनके चित्रकर्म के साथ है। वहां दृष्य का पठन है। रेखाओं का उजास है और परम्परा की बजाय अव्यक्त का वह व्यक्त है जिसमें दृष्य हमारे जाने-पहचाने हैं परन्तु उनका संसार सर्वथा अलग है। ऐसा जिसे देखते हम स्वयं ही पुनर्नवा होते हैं। जो कुछ यथार्थ है, उसे हूबहू या फिर उसका आभास कराने का कार्य तो जादू भी कर सकता है, उसमें कला कहां है? इसीलिये कहें, रवीन्द्र ने जादू नहीं कला के गहन संस्कार हमें दिये हैं। इन संस्कारों के आलोक में ही उनकी कला दृष्टि पर आईए फिर से विचारें!

Saturday, May 5, 2012

सिनेमा में झांकता कला संसार


दृष्य से अदृष्य की सत्ता बड़ी होती है। दृष्य में यथार्थ की दीठ भर होती है परन्तु अदृष्य स्मृतियों, अनुभूतियों का अनंत आकाष जो लिये होता है। इसीलिये शायद कभी अज्ञेय ने कहा भी, ‘स्मृति ही वह गतिषील सर्जनात्मक तत्व है, जो काल, इतिहास, साहित्य और हां, भाषा के नये परिदृष्य रचती चलती है।’ यह स्मृतियां ही हैं जो सर्जना में काल के गाल विगत-वर्तमान का अंतर पाटती है। विनय शर्मा के चित्रों पर जब भी विचार करता हूं, कैनवस पर मूल कैलिग्राफी में झांकती स्मृतियां रोमांचित करती है। उनका कैनवस अतीत से जुड़ी चीजों का वस्तुगत यथार्थ नहीं होकर स्मृतियों के निजी संवेदन संज्ञान के रूप में हमारे समक्ष उद्घाटित होता है। मूल कैलिग्राफी में तड़कते कागजों की पुरानी बहियां, पोस्टकार्ड, स्टाम्प पेपर, जन्मपत्रियों आदि के साथ ही इस्तेमाल कुछ वैसे ही रंगो में भीतर के संवेदन को रूपायित करने की उनकी क्षमता अद्भुत है।
बहरहाल, हाल ही उनके कला के इस आयाम पर ख्यात फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज और रोहित सूरी ने लघु फिल्म ‘रिम्बेर्म्स ऑफ थिंग्स पास्ट: द वर्ल्ड ऑफ विनय शर्मा’ बनायी है। इसका आस्वाद करते चित्रकला, संगीत और सिनेमा के रिष्तों को गहरे से जिया जा सकता है। पंडित विद्याधर व्यास के स्वरों में राग बागेश्री के गान में संजोयी इस फिल्म की शुरूआत सांगानेर स्थित कागज के कारखाने से होती है। लुगदी से कागज बन रहा है। इस बन रहे कागज में चित्र सर्जन की तमाम संभावनाएं तलाषते स्वयं विनय कागज को अपने तई आकार देते मूल कैलिग्राफी में अतीत से जुड़ी वस्तुओं को सहेज रहे हैं। दृष्य बदलता है। विनय का जन्म स्थल लालसोट दिखाई देता है। कस्बाई गली, पुराना घर और उसके अंदर रखा बड़ा सा संदूक। पितामह आत्मानंद सरस्वती के बड़े से संदूक से पुराने ग्रंथ, पोस्टकार्ड, स्टाम्प पेपर, पुराने कागजाद निकालते विनय अपनी कला यात्रा की जैसे यहां गवाही दे रहे हैं। सर्जन की तलाष आगे बढ़ती है। रेखाओं के रंग आच्छादित कैनवस में संवाद करती स्मृतियां से अनायास अपनापा होने लगता है। गाढे रंगों में मूल कैलिग्राफी के अंतर्गत प्रकृति के चितराम हैं तो जीवनगत सरोकार भी हैं। फिल्म के एक दृष्य में विनय स्टूडियों में काम कर रहे हैं। कला मगन मुद्रा का रोहित सूरी का लॉन्ग शॉट और उसकी बारीकी मन को छूती है।  दृष्य और भी हैं जिनमें कैनवस अलंकरण करते कलाकार की भाव मुद्राएं हैं तो हाल का विनय का वह संस्थापन भी है जिसमें पुरानी लालटेन, कलम दवात और दूसरी अतीत की चीजें उनके कला संवेदन को गहरे से हमारे समक्ष रखता है। पूरी फिल्म में कहीं कोई संवाद नहीं है, दृष्य ही देखने वाले से जैसे संवाद करते हैं। 
विनय देष के संभवतः ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अतीत से जुड़ी चीजों को मूल कैलिग्राफी में सर्जन का हिस्सा बनाते स्मृतियॉं के अंकन का सर्वथा नया कला भव निर्मित किया है। वह अतीत से जुड़ी किसी एक वस्तु को उसकी पूर्णता में नही बल्कि उसके किसी आयाम को निकालकर भीतर के अपने भावों के अनुसार उसका रूपाकार गढ़ते हैं। ऐसा करते अंतर्मन संवेदना के संप्रेष्य के तमाम आयामों का भरपूर इस्तेमाल उनकी सर्जना में होता है। कहें, लघु फिल्म उनके सर्जन के इस आयाम को गहरे से उद्घाटित करती है।
सिनेमा और चित्रकर्म का आरंभ से ही गहरा रिष्ता रहा है। कभी गोपी गजवानी ने ‘द टाईम’ और ‘द एंड’ शीर्षक से कला फिल्में बनायी थी। हुसैन और विवान सुन्दरम निर्मित कला फिल्में कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहती हैं। इनमंें कहीं कोई कथा नही थी परन्तु विषय का जो ट्रिटमेंट है, उसे गहरे से जिया गया है। कला और कलाकार पर फिल्म निर्मिती में दृष्य के साथ कलाकार की संवेदना के तमाम आयामों को बहुत कम समय में छूना ही तो होता है। इस दृष्टि से विनय के कला संसार पर निर्मित यह फिल्म कलाकार की भीतर की संवेदना से देखने की हमारी संवेदना को गहरे से जोड़ती है। उनकी कला से साक्षात्कार कराती है।