Thursday, September 29, 2011

संस्कृति के सिनेमाई सरोकार

तमाम कलाओं का सामूहिक मेल सिनेमा है। वहां संगीत है। नृत्य है। नाट्य है, तो चित्रकला भी है। ऋत्विक घटक ने इसीलिये कभी कहा था कि दूसरे माध्यमों की अपेक्षा सिनेमा दर्षकों को त्वरित गति से चपेट में लेता है।...एक ही समय में यह लाखों को उकसाता और उत्तेजित करता है।

बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में राजस्थानी फिल्म महोत्सव में भाग लेते मायड़ भाषा और उसके सिनेमा सरोकारों को भी जैसे गहरे से जिया। सदा हिन्दी में बोलने वाले सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के शासन सचिव कुंजीलाल मीणा राजस्थानी में बोल रहे थे और सिनेमा से जुड़े गंभीर सरोकारों पर बखूबी बतिया भी रहे थे। अचरज यह भी हुआ, 1942 में जिस भाषा में महिपाल, सुनयना जैसे ख्यात कलाकारों को लेकर पहली फिल्म ‘निजराणो’ का आगाज हो गया था, वह सिनेमा विकास की बाट जो रहा है। जिस सिनेमा में कभी रफी ने ‘आ बाबा सा री लाडली...’ जैसा मधुर गीत गाया, जहां ‘जय संतोषी मां’ समान ही ‘सुपातर बिनणी’ जैसी सर्वाधिक व्यवसाय करने वाली फिल्म बनी, वह 69 वर्षों के सफर में भी पहचान की राह तक रहा है। भले इसकी बड़ी वजह दर्षकों का न होना कहा जाये परन्तु तमाम हिट-फ्लॉप फिल्मों से रू-ब-रू होते इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि तकनीक की दीठ से अभी भी यह सिनेमा बहुत अधिक समृद्ध नहीं है। सच यह भी है कि सिनेमा जैसे बड़े और फैले हुए माध्यम की समझ का भी मायड़ भाषा में टोटा सा ही रहा है। राजस्थान की समृद्ध संस्कृति, इतिहास और कलाओं को बखूबी परोटते हिन्दी सिनेमा ने निरंतर दर्षक जोड़े हैं जबकि राजस्थानी सिनेमा कैनवस इससे कभी बड़ा नहीं हुआ।
पचास से भी अधिक वर्ष हो गये हैं, हिन्दी फिल्म ‘वीर दुर्गादास’ में भरत व्यास रचित मुकेष-लता का गाया पूरा का पूरा राजस्थानी गीत ‘थाने काजळियो बणा लूं...’ था। तब भी और आज भी यह लोकप्रिय है परन्तु राजस्थानी सिनेमा ‘बाबा रामदेव’, ‘लाज राखो राणी सती’ करमा बाई’ ‘वीर तेताजी’, ‘नानी बाई को मायरो’ जैसी धार्मिक फिल्मांे और ‘बाई चाली सासरिये’, ‘ढोला-मरवण, ‘म्हारी प्यारी चनणा’, ‘दादो सा री लाडली’ और इधर बनी ‘पंछिड़ो’ ‘भोभर’ जैसी कुछेक गिनाने लायक फिल्मों से आगे नहीं बढ़ सका है। जो फिल्में बनी हैं, उनमें अधिकतर ऐसी हैं जो हिन्दी सिनेमा की तड़क-भड़क का बगैर सोचे अनुकरण करती भद्दे, विकृत और हीन वृत्त्तियों को उत्तेजन देने वाले तरीकों पर ही केन्द्रित रही है। हल्केपन की इस नींव में कितने ही खूबसूरत कंगूरे लगा दें, इमारत के भरभराकर गिरने से रोकने की गारंटी क्या कोई दे सकता है!

बहरहाल, राजस्थानी फिल्म महोत्सव सार्थक पहल है। इसलिये कि इसके अंतर्गत दिखाई फिल्मों और आयोजित विभिन्न विचार सत्रों से चिंतन और समझ के नये वातायन खुले हैं। सिनेमा की गहरी समझ रखने वाले मित्र संजय कुलश्रेष्ठ से संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘फिल्म समारोह से निर्माता जगेंगे। दूसरे पक्षों में भी कुछ चेतना तो आएगी ही।’ सवाल यहां यह उठता है कि फिल्म निर्माण की कला को राजस्थानी में क्या वाकई सुनियोजित रूप से लिया गया है? जब राजस्थानी लोकगीतों का संस्कृति के मूल सरोकारों के साथ तकनीकी दीठ से के.सी. मालू जैसे शख्स अपने तई पुनराविष्कार कर उसका सुदूर देषों तक व्यापक प्रसार कर सकते हैं तो इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि राजस्थान की संस्कृति यहां की भाषा का सिनेमा सषक्त संप्रेषण माध्यम हो सकता है। दक्षिण का ही उदाहरण लें। बदलते हुए समय में भी वहां सिनेमा ने समाज को संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखा है। किसी भी भाषा में यह जरूरी नहीं है कि जो फिल्में बने वह सबकी सब महान या कालजयी हों ही परन्तु जो फिल्में बनें उनमें कला की दीठ तो हो। तकनीक की समझ तो हो। यह सिनेमा ही है जो अपनी बात कान, वेनिस, कार्लोवी, वारी से लेकर सुदूर गांवों तक पहुंचा सकता है। फिल्म प्रदर्षन की सीमाओं के चलते एक आस जवाहर कला केन्द्र के महानिदेषक हरसहाय मीणा ने भी दी है। राजस्थानी सिनेमा के लिये तमाम पक्षों की ओर से सार्थक पहल यदि इस फिल्म महोत्सव के बहाने ही होती है तो इसमें बुरा ही क्या है!

Friday, September 23, 2011

कैनवस और संस्थापन की नयी दीठ

इन्स्टालेशन माने संस्थापन। कला में विज्ञान, तकनीक और दर्शन  का एक प्रकार से मेल। तमाम तरह की वस्तुओं के विन्यास के साथ ही इर्द-गिर्द फैलायी चीजों से एक नया वातावरण पैदा करने का प्रयास। कला का यह आज ‘न्यू मीडिया’ है। कुछ और स्पष्ट कहूं तो कला का लोकतंत्र। ऐसा जिसमें माध्यमों-संसाधनों का किसी भी तरह से उपयोग करने के लिये कलाकार स्वतंत्र होता है। दर्शक  यहां दृष्टा भर नहीं होता, बल्कि बहुतेरी बार इन्स्टालेशन का हिस्सा भी हो जाता है।
जवाहर कला केन्द्र में भारत एवं कोरिया की समकालीन कला प्रदर्शनी ‘पिंक सिटी आर्ट प्रोजेक्ट 2011’ में कैनवस के साथ ही संस्थापन की भी बहुलता दिखाई दी। विडियो इन्स्टालेशन के साथ ही फाईबर ग्लास, पेपर, झाड़फानुस, पुराने दरवाजे और भी बहुत सारी चीजों से उभारी नये दौर की यह कला अपनी ओर जैसे बुला रही थी। भले वहां माध्यमों का अतिरेक था फिर भी संप्रेषण की दीठ का नयापन भी था। मसलन जयपुर की सड़कों पर चलने वाले रिक्साचालक का विडियो इन्स्टालेशन। पैडल पर पड़ते पैरों से उत्पन्न गति और ध्वनि दृष्य जेहन में तो बसता है परन्तु उसमें मोनोटोनी है। ली जून जीन द्वारा पर्दे पर प्रोजेक्टर के जरिये उभारे अर्थहीन बिम्बों को कहने भर को कला कहा जा सकता है। मुझे लगता है, संस्थापन के अंतर्गत कोरियाई कलाकारों में तकनीक का आग्रह अधिक है। इन्स्टालेशन की यही बड़ी सीमा है। तकनीक कला के संप्रेषण का हेतु तो हो सकती है परन्तु वह कला कैसे हो सकती है! नयेपन के नाम पर संस्थापन मे यह मनमानी सही नहीं है।
बहरहाल, विनय शर्मा का संस्थापन अर्थ गांभीर्य लिये संवेदना को झकझोरता है। रचनात्मक और विजुअल इन्स्टिंक्ट में पुरानी चीजों के अस्तित्व से भूत, भविष्य और वर्तमान के मायने जैसे रखे गये। पुरानी बहियों के पन्ने, नगाड़ों, लालटेन, कलम और दवात के ऊपर टंगे झाड़फानुस को रोशनी रंग देता आधुनिक प्रोजेक्टर और अंधेरे कमरे में आस-पास फैलायी ताजी दूब की गंध से सोच को जैसे पंख लगते है। ऐसे ही सुरेन्द्रपाल जोषी का संस्थापन भी संवेदना को नये आयाम देता है। फाइबर ग्लास, सूत की डोरियों में में झांकती रोषनी की परतों से उभरती जीवाश्म   सरीखी आकृतियां और कैप में उभरे नाखुनों के अंतर्गत वहां सृजन के सरोकारों की गहरी तलाष की जा सकती है। हां, कोरियाई कलाकार ली सेंग ह्यून का और ना सू यीओन का इन्स्टालेशन शहरों से जुड़ी स्मृतियों के जीवंत बिम्ब भी अलग से ध्यान खींचते लगे।
प्रदर्शनी में भारतीय-कोरियाई कैनवस में बहुत से स्तरों पर साम्यता की अनुभूति होती है। रंग और संवेदना के स्तर पर देखें तो कोरियाई कलाकार कोह अ बीन की जल रंगों में झांकती ‘अ टेल आॅफ चियोंग’, किम योंग क्वान की ज्यामीतिय संरचना, किम येंग ही के रंग कोलाज, किम क्योंग ए की ‘नेस्ट ऑफ  फोनिक्स’, किम यून जिन का स्त्रीआकृति के साथ ही सुधांशु  सूथार, कालीचरण गुप्ता, आलोक बल, मनीष शर्मा और बोस कृष्णमाचारी की कैनवस कलाकृतियां में निहित संवेदना के चक्षु देशों  की दूरियां जैसे पाटते हैं।
कला में इन्स्टालेशन  कोई नई बात नहीं है। भारतीय परम्पराओं में  तो संस्थापन की भरमार है। मेले, पर्व, अनुष्ठान, जन्माष्टमी सजाई और दुर्गा विसर्जन सब संस्थापन ही तो है। चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में पश्चमी  कला जगत में दृक अनुभवों के अंतर्गत अलग-अलग चीजों, तत्वों को किसी एक अवकाश या स्पेश  में ले जाने की कला शैली कुछ-कुछ संस्थापन जैसी ही तो रही है। कभी मार्षल दूषां ने ‘युरिनल पोट" को प्रदर्शनी में बतौर ‘फाउण्टेन’ शीर्षक से शिल्प  करार देते परम्परागत मर्यादाओं को तोड़ते संस्थापन ही तो किया था।
दृश्य, ध्वनि, स्पर्श और शब्द के इन्स्टालेशन में विषय-वस्तु और फोरम  के कारण तताम तत्वो ंका संयोजन किसी एक संबंध में रूपान्तरित होता नये अनुभव का संवाहक होता है। यह जब लिख रहा हूं, भारतीय-कोरियाई कलाकारों की प्रदर्शनी  के अंतर्गत कैनवस और इन्स्टालेशन आर्ट में कला के वैश्वीकरण  को भी जी रहा हूं। आप क्या कहेंगे!

Saturday, September 17, 2011

अंतर्मन संवेदनाओं के चित्राख्यान

सावित्री पाल की अंतर्मन संवेदनाओं को उनकी रेखाओं में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। बारीक रेखाओं के अंतर्गत स्त्री-पुरूष की देह से लिपटे-फूलों, बेलपत्तियांे के बहाने वह जीवन की अपने तई कला व्याख्या करती है। तकनीक की दृष्टि से ही नहीं बल्कि संवेदनाओं के भव की दीठ से भी। स्त्री-पुरूष संबंधों, देह से जुड़े सवालों से उनकी कलाकृतियां जूझती लगती है तो ठीक इसके उलट बहुत से स्तरों पर उनका कलाकर्म निर्वाण के मौन की भी पुनर्व्याख्या करता प्रतीत होता है। कह सकते हैं दर्षन की गहराईयों में वह जो उकेरती रही है, उसमें जीवन का सांगोपांग चितराम है। भले वह जो बनाती हैं, वह आकृतिमूलक है परन्तु उसके अर्न्तनिहित अमूर्तन का वह कैनवस भी है जिसमें देखने वाले को विचार का सर्वथा नया आलोक भी मिलता है। मसलन बुद्ध से संबद्ध उनकी कलाकृतियों को ही लें। मौन बुद्ध की शांत आकृतियों को सावित्री पाल ने अपनी दीठ से विस्तार दिया है। निर्वाण का अर्थ जग से पलायन नहीं है, जग से भागना नहीं है बल्कि जगत को ज्ञान से दीक्षित करना है। बुद्ध ने यही तो किया था। ऐसे वक्त में जब तमाम समाज कर्मकाण्डों के जाल में उलझा हुआ था, यह बुद्ध ही तो थे जिन्होंने व्यक्ति को अपने भीतर झांकते हुए पूर्वाग्रहों से मुक्ति की राह दिखाई थी। कर्मकाण्डों से परे ऐसे धर्म पर चलने की राह सुझाई जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता को बरकरार रखते हुए भीतर के अपने आलोक को बाहर ला सके।

सावित्री पाल की कला में बुद्ध के निर्वाण के साथ ही उनके इस दर्षन से गहरे से साक्षात् हुआ जा सकता है। उनके बुद्ध हमारी चेतना को जगाते हैं। बुद्ध का अर्थ भगवान बुद्ध ही थोड़े ना है, बुद्ध का अर्थ है ज्ञान जो हमारे भीतर है। रेखाओं के अद्भुत न्यास में सावित्री पाल के चित्रों के खुलते अर्थ गवाक्षों में भले ही स्त्री-पुरूष आकृतियों के कोलाज सरलतम रूप मंे हमारे समक्ष आते हैं परन्तु उनमें निहित बुद्धत्व के भाव अलग से ध्यान खींचते है।

स्त्री-पुरूष संबंधों और उनकी अंतर्मन संवेदनाओं को रेखाओं के रूपाकार में वह देखने वाले की दृष्टि और उसके अनुभवों का विस्तार करती है। मुुझे लगता है, आपाधापी मंे तेजी से छूटते जीवन मूल्यों, भावनाओं के ज्वार और देह के भुगोल में सिमटते जा रहे रिष्तों की उनकी कलाकृतियां एक तरह से गवाही देती है। जो जीवन हम जी रहे हैं, उसके द्वन्दों को सावित्री पाल की कला गहरे से रेखाओं में व्याख्यायित करती है। प्रतिदिन के जीवन से रू-ब-रू होने के बावजूद हम कहां उसको समझ पाते हैं। बहुतेरी बार जब तक समझते हैं, तब तक अनुभूति बदल जाती है। जीवन में जो कुछ छूट जाता है, उस छूटे हुए को सुक्ष्म संवेदना, दृष्टि में सावित्री पाल अपने चित्रों में जताती हुई भी लगती है। सहज, सरल मानवाकृतियों के साथ ही पार्ष्व के परिवेष, बेल-बूटे, लताओं, फूलों और तमाम चित्र के दूसरे परिदृष्य में उनका कलाकर्म आमंत्रित करता है, बहुतेरी बार देखने वाले पर हावी होता है, कुछ कहने के लिए मजबूर करता हुआ।

ब्हरहाल, सावित्री पाल के चित्र संवेदना के जरिए गतिमान होते हैं। उनमें भावों की लय है। वहां उत्सवधर्मिता, विषाद, हर्ष की अनुभुतियां भी है तो आकृतिमूलक कला का वह माहौल भी है जिसमें अनुभव और मन के भावों से बनती नारी-पुरूष देह यष्टि के हाव-भाव आपको भीतर से झकझोरते हैं, कुछ सोचने को विवष करते हुए। परम्परा का निर्वहन तो वहां है परन्तु आधुनिकता की वह संवेदनषीलता भी है, जिसमें उभरे प्रतीक, बिम्ब देखने वाले से संवाद करते हैं।

कांट का कहा याद आ रहा है ‘प्रकृति सुन्दर है क्योंकि वह कलाकृति जैसी दिखती है और कलाकृति को तभी सुदंर माना जा सकता है जब उसका कलाकृति जैसा बोध होते हुए वह प्रकृति जैसी प्रतीत होती है।’ स्त्री-पुरूष से ही तो यह प्रकृति है। सोचिए! प्रकृति की लय यदि गायब हो जाय तो क्या फिर हम सौन्दर्य का आस्वाद कर सकते हैं!

Friday, September 9, 2011

रेखाओं और रंगो का काव्य कहन


यह जून 2010 की बात है। जहांगीर सबावाला ने तब नया विष्व रिकॉर्ड बनाया था। उनकी एक कलाकृति ‘द कसअरीना लाइन आई’ सैफ्रोनार्ट की ऑनलाइन नीलामी में 1.7 करोड़ में बिकी थी। अखबारों की सुर्खियों में औचक वह छा गये थे परन्तु पिछले शुक्रवार को जब इस कलाकार का देहान्त हुआ तो समाचार जगत मौन था। मन में विचार कौंधा, कला और कलाकार की समाचार गत क्या यही है?

बहरहाल, जहांगीर सबावाला अपनी धुन के ऐसे कलाकार थे जो कैनवस पर ही बोलते थे। असल जीवन में एकान्तिक। एकाधिक बार संवाद हुआ तो अपने बारे में बताने से भी बचते ही रहे। लगातार उन्होंने काम किया और कुछ समय तक प्रभाव वाद, घनवाद के करीब रहने के बावजूद भारतीय परिवेष, रंग और सोच से उन्होंने अपने तई कला की नयी भाषा भी रची। यह ऐसी थी जिसमें पिकासो की कला शास्त्रीयता को आगे बढ़ाते भारतीय दृष्टि के अंतर्गत जीवन से परे स्वर्गिक सौन्दर्य सृष्टि के चितराम उन्हांेने उकेरे। पूर्व-पष्चिम के मेल की कला शैली। भारतीय दर्षन में पष्चिम की दृष्टि। उनके लैण्डस्केप और मानवाकृतियां इसी की संवाहक है। सौन्दर्य की तमाम संभावनाओं का उजास वहां है। नदी, समुद्र, पक्षी, आकाष, भोर, सांझ के कैनवस पर उभरते उनके दृष्य परत दर परत घुले रंगों में देखने के हमारे ढंग को भी जैसे नयी दीठ देते हैं।

सबावाला के प्रकृति चित्र सांगीतिक आस्वाद कराते हैं। दृष्यों में वहां समय का मधुर गान है। लैण्डस्केप में उभरी भोर की लाली, दोपहर, सांझ और धूप की परछाई समय की गति को ध्वनित करती हमें ‘अरे! यह सूर्योदय, यह सांझ!’ जैसा ही कुछ कहने के लिये उकसाती है। दैनिन्दिन जो दिखता है, वैसा ही परन्तु दृष्य रूपान्तरण में अलग मोहकता। वायवीयता। भारतीय रंग और परिवेष परन्तु पष्चिम से सीखी कला की शास्त्रीयता। आकृतियों जैसे वातावरण में घुल रही है। देखने का हमारा अनुभव बदल जाता है। मुझे लगता है, उनकी प्रकृति दृष्यावलियां मैंटल लैण्डस्केप हैं। दृष्यों के मनःदृष्य।

याद पड़ता है, संवाद में एक बार उन्होंने कहा था, ‘चित्र बनाने से पहले मैं अपनी डायरियंा टटोलता हूं। मैं प्रकृति, चीजों को देखकर नोट लेता हूं। देखे हुए अनुभवों के साथ ही सुबह, दोपहर, सांझ के रंगों की डिटेल भी कईं बार लिख लेता हूं। बाद में कैनवस पर काम करता हूं तो यह सब काम आता है।’ सच ही तो कहा था सबावाला ने। वह जब कुछ बनाते तो दृष्य मन के उनके सौन्दर्य का संवाहक बन जाते। ऐसा लगता है, रंग और रेखाओं के साथ बहती हवा को भी वह जैसे घोल देते। हवा का संगीत भू दृष्यों पर, आकृतियांे पर तैरता है। अजीब सा सुकून देता हुआ। परत दर परत घुले हुए रंग। जल, थल और नभ के अनगिनत बिम्ब। वहां पक्षी है, रात है, सांझ की लालिमा है परन्तु यह सब हमारे पृथ्वीलोक के नहीं होकर किसी ओर लोक के लगते हैं। यह दृष्य की काव्य भाषा है। फंतासी। परिचित वस्तुओं, मानवाकृतियों का अपनी दीठ से वह अद्भुत रंग संयोजन कर दृष्यांकन का जैसे नया मुहावरा बनाते। शरीरचना शास्त्र के बाह्य बंधनों से परे मानव निर्मित ज्यामीतियता प्रधान वस्तुओं के दृष्य प्रभावों का अनंत आकाष उनके चित्रों में है। कला सौन्दर्य की अपूर्वता वहां हैं। रंग और रेखाओं में भावों का अनूठा स्पन्दन। सौन्दर्य का उनका चित्रकहन कला की वैष्विक भाषा है। ऐसी भाषा जिसमें भारत के साथ ही तमाम दूसरे देषों की रेखाओं, रंगो, परिवेष और विचारों को जैसे गूंथा गया है। देष काल की सीमा से परे सौन्दर्य की उनकी कला अभिव्यंजना में सम्मोहन है। यह उनका कला सम्मोहन ही है जो जो हमें उनकी कलाकृति के आस्वाद के बाद भी उसके अनुभव से मुक्त नहीं होने देता है। कला की यही उनकी निजता है।

Monday, September 5, 2011

मूल के साथ कला का यह प्रतिकृति बाजार


मौलिक सर्जन को बहुत से स्तरों पर प्रसव वेदना के बाद के सुख से अभिहित किया गया है। सोचिए! इस अंतःप्रक्रिया के बाद कोई कलाकार अपनी निर्मिती की ही कहीं नकल पाता है तो उस पर क्या गुजरती होगी। आज के कलाबाजार का यही कड़वा सच है। असली के साथ ही 20 से 25 प्रतिषत कलाकृतियां आज बाजार में नकली बेची जा रही है। पिकासो, वॉन गॉग, सलवाडोर डाली, मार्क चगाल से लेकर रजा, हुसैन, मनजीत बावा, जे. स्वामीनाथन, सुबोध गुप्ता, अतुल डोडिया, अंजली इला मेनन की कलाकृतियों की बिक्री में जैसे असल-नकल का कोई भेद ही नहीं रह गया है।

कभी अंजली इला मेनन की ‘फीमेल हेड’ पेंटिंग की नकल के चर्चे खूब रहे थे और एस.एच. रजा उस दिन को शायद ही कभी भूल पाये होंगे जब उन्हें अपनी ही नकल की हुई कलाकृतियों के उद्घाटन अवसर पर याद किया गया था। अमेरिका की प्रतिष्ठित क्रिस्टीज और सोथबीज कलादीर्घाओं में भारतीय मूल के चौदह प्रख्यात कलाकारों की कलाकृतियों नकली होने के संदेह में उन्हें नीलामी सूची से हटाया गया तो ख्यात कलाकार अजय घोष की कलाकृतियों को नंदलाल बोस की कलाकृतियों बता कर बेचे जाने का मामला भी खासा चर्चित रहा है। गणेष पाईन के रेखाचित्रों की रंगीन फोटोप्रतियां को असली बताकर बेचे जाने ने तो कला मे नैतिकता के तमाम मूल्य जैसे बदलकर रख दिये हैं। नकल के इस गोरखधंधे में बारीकी इस कदर है कि बड़े से बड़ा कला पारखी ही नहीं बल्कि स्वयं कलाकार भी धोखा खा जाये।

याद पड़ता है, कभी हुसैन की राज श्रृंखला की पेंटिग ‘राजा और रानी’ को उनके बेटे ने चैन्ने की एक मषहूर कलादीर्घा में देखा तो पाया कि वह नकली थी। बाकायदा हुसैन ने तब समाचार पत्रों में अपील जारी की कि कला संग्राहक उनकी कलाकृतियों के असली होने की पुष्टि के लिये उनके रंगीन फोटोग्राफ भेजे परन्तु खुद हुसैन अपनी पेंटिंग की नकल की बारीकी को पकड़ नहीं पाये और धोखा खा गये।

बहरहाल, कला में नकल की इस प्रवृति का बड़ा कारण है तेजी से पनपता कला बाजार। यह ऐसा है जिसमें हैसियत के हिसाब से कलाकृतियां खरीदी और बेची जाती है। मषहूर कलाकारों के सहायकों और प्रषंसक कलाकारों ने भी इसे कम बढ़ावा नहीं दिया है। मसलन अंजलि इला मेनन के सहयोगी हामीद ने ही उनकी कलाकृतियों की नकल बाजार में पहुंचायी तो मनजीत बावा के सहायक महेन्द्र सोनी ने बावा की कलाकृतियां की नकल जमकर बेची। जे. स्वामीनाथन के चित्र बहुत कम लोगों के पास है परन्तु उनकी चिड़िया और पहाड़ श्रृंखला की नकल अमेरिका की प्रमुख आर्ट गैलरी बेचती पायी गयी। स्वामीनाथन के पुत्र संस्कृति समीक्षक कालीदास को इस बात का पता लगा तो उन्होंने नकली कलाकृति की निलामी रूकवाई। मजे की बात यह रही कि कलादीर्घा स्वामीनाथन की जिस चित्र शैली को 1966 का बता रही थी वह शैली असल में सत्तर के दशक में आयी थी।

मुझे लगता है, कला के इस गोरखधंधे के प्रति हमारे यहां अभी भी खास कोई सजगता नहीं है। यही कारण है कि असल के साथ नकल की प्रवृति निरंतर बढ़ती जा रही है। क्यों नहीं कला षिक्षा के अंतर्गत कला की असल-नकल पर भी चर्चा की जाये। तकनीकी तौर पर कलाकृति निर्माण में कलाकारों द्वारा ऐसा कुछ जरूर किये जाने की पहल की जाये जिससे वह स्वयं वह अपनी कलाकृति की असल-नकल को पहचान सके। क्यों नहीं कलाकृतियों की नकल संबंधी कॉपीराइट कानूनों की भी षिक्षा कला षिक्षण संस्थान अपने यहां दें। कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर और अमृता शेरगिल की कलाकृतियों को राष्ट्रीय धरोहर मानते हुए इनके निर्यात पर धरोहर और कलानिधि कानून 1972 के तहत रोक लगायी गयी थी परन्तु यह कानून भी अब इतना पुराना हो चुका है कि अपनी प्रासंगिता ही जैसे खो चुका है। आपको नहीं लगता, धड़ल्ले से हमारी राष्ट्रीय कलानिधियां अब विदेषों की कलादीर्घाओं की शोभा बनती जा रही है!